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गुम हुए पनघट, बावड़ियां, नौण- पानी पिलाये कौन?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को मन की बात में जल की बूंद बूंद बचाने का आग्रह किया ताकि जीवन बचाया जा सके। उन्होंने परम्परागत जल स्त्रोतों को सहेजने की भी बात की। उनकी इसी बात पर मंथन करते हुए हमने हिमाचल के

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लेखक, संजीव शर्मा, दैनिक न्याय सेतु के स्थानीय संपादक हैं।

परम्परागत जल स्त्रोतों की थाह लेने की ठानी। हमारी पड़ताल का नतीजा चौंकाने वाला रहा। पता चला कि प्रदेश में डेढ़ दशक पहले तक हर गांव पर औसतन तीन जल स्रोतों की दर से 41536 जल स्रोत मौजूद थे जो अब घटकर महज 10512 रह गए हैं। इनमें से भी आधे अगले दो साल में मर जायेंगे।

नदियों, झीलों का घर होने के बावजूद हिमाचल में पानी के परम्परागत स्रोत- नौण, कुएं और बावड़ियां जीवन का आधार रहे हैं। झीलों, नदियों से जनजीवन के लिए पेयजल की आपूर्ति उस दौर में संभव नहीं थी, क्योंकि तब इस तकनीक का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, जिस कारण यहां पेयजल के लिए यहां पनघट और बावड़ियां ही प्रमुख स्रोत रहे हैं। या यूं कह लीजिये की सभ्यता के नियम के विपरीत पहाड़ में जीवन नदियों के बजाये पनघटों के किनारे ही ज्यादा पल्लवित हुआ है। इतना ही हर तीसरे लोकगीत में किसी न किसी बावड़ी या कुएं का उल्लेख आसानी से मिल जाता है। लेकिन अब ऐसा नहीं है। लोकगीतों के साथ- साथ पनघट, नदियां,  नौण और छरूडू भी बीते दिनों की बात हो गए हैं। इसे आप आधुनिकता की मार कह लें या फिर लापरवाही, लेकिन ये सत्य है कि हमारे परम्परागत जल स्त्रोत संकट में हैं।

प्रदेश में वर्ष 2000 में कराए गए एक सर्वेक्षण में 41536 ऐसे जलस्रोत चिन्हित किये गए थे जहां से लोग पेयजल जरूरतें पूरी करते थे, लेकिन 2016 की स्थिति ये है कि अब इनमें से महज 10512 ही बचे हैं। ऐसे में बड़ा सवाल अब ये भी है कि क्या हम अगले दशक में ये परम्परागत पेयजल स्रोत देख भी पाएंगे या नहीं?

एचएनपी सर्विस

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