मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ ‘ग़ालिब’ (27 दिसंबर 1796- 15 फरवरी 1861) उर्दू एवं फ़ारसी के महान शायर थे। इन्हें उर्दू का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जुबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इन्हें दिया जाता है। ग़ालिब का नाम भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में बहुत आदर से लिया जाता है। शहंशाह बहादुर शाह ज़फर द्वितीय ने 1840 में मिर्ज़ा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा। बाद में उन्हे मिर्ज़ा नोशा का खिताब भी मिला। वे शहंशाह के दरबार में एक महत्वपूर्ण दरबारी थे।
आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू गजलों को लिए याद किया जाता है। उर्दू अदब मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी के बगैर अधूरी मानी जाती है। ग़ालिब की शायरी ने उर्दू अदब को नए पंख और नया आसमान दिया। प्रस्तुत है ग़ालिब के बीस बहुचर्चित शेरः-
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना
हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब‘ ये ख़याल अच्छा है
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
इशरत-ए-कतरा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना
गैर ले महफिल में बोसे जाम के
हम रहें यूं तश्ना-ऐ-लब पैगाम के
खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक हैं तुम्हारे नाम के
इश्क़ ने ‘गालिब’ निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
चंद तस्वीर-ऐ-बुतां, चंद हसीनों के खतूत
बाद मरने के मेरे घर से यह सामान निकला
यह ज़िद कि आज न आये और आये बिन न रहे
काजा से शिकवा हमें किस कदर है, क्या कहिये
जाहे -करिश्मा के यूं दे रखा है हमको
फरेब कि बिन कहे ही उन्हें सब खबर है, क्या कहिये
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते
आ ही जाता वो राह पर ‘गालिब’
कोई दिन और भी जिए होते
ऐ बुरे वक्त जरा अदब से पेश आ
वक्त नहीं लगता वक्त बदलने में
तोड़ा कुछ इस अदा से ताल्लुक उसने गालिब
के सारी उम्र अपना कसूर ढूंढते रहे
बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब
जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रुलाता जरूर है
फिर उसी बेवफा पे मरते हैं, फिर वही ज़िन्दगी हमारी
है बेखुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब’ कुछ तो है जिस की पर्दादारी है
खुदा के वास्ते पर्दा न रुख्सार से उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो यहां भी वही काफिर सनम निकले
तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिला के दिखा
नहीं तो दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले
लफ़्जों की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती ‘ग़ालिब’
हम तुम को याद करते हैं सीधी सी बात है
थी खबर गर्म के ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े,
देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ
यह इश्क नहीं आसां बस यूं समझ लीजिए
आग का दरिया है और डूब के जाना है
प्रस्तुति- एचएनपी सर्विस-