नास्तिकवाद या अनीश्वरवाद (Atheism) वह सिद्धांत है, जिसमें किसी भी ईश्वर के अस्तित्व को सर्वमान्य प्रमाण के न होने के आधार पर स्वीकार नहीं किया जाता। (नास्ति = न + अस्ति = नहीं है, अर्थात् ईश्वर नहीं है।) नास्तिक लोग ईश्वर (भगवान) के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण नहीं होने के कारण इसे झूठ करार देते हैं। अधिकांश नास्तिक किसी भी देवी देवता, परालौकिक शक्ति, धर्म और आत्मा को नहीं मानते।
बौद्ध धर्म मानवीय मूल्यों तथा आधुनिक विज्ञान का समर्थक है। बौद्ध अनुयायी काल्पनिक ईश्वर में विश्वास नहीं करते। इसलिए अल्बर्ट आइंस्टीन, बर्नाट रसेल जैसे कई विज्ञानवादी एवं प्रतिभाशाली लोग बौद्ध धर्म को विज्ञानवादी धर्म मानते हैं। चीन देश की आबादी में 91% से भी अधिक लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं, इसलिए दुनिया के सबसे अधिक नास्तिक लोग चीन में हैं। इसका मतलब है कि नास्तिक लोग धर्म से जुड़े हुए भी हो सकते हैं।
भारतीय दर्शन में नास्तिक शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। (1) जो लोग वेद को परम प्रमाण नहीं मानते, वे नास्तिक कहलाते हैं। इस परिभाषा के अनुसार बौद्ध, जैन और लोकायत मतों के अनुयायी नास्तिक कहलाते हैं और ये तीनों दर्शन ईश्वर या वेदों पर विश्वास नहीं करते। इसलिए वे नास्तिक दर्शन कहे जाते हैं।
(2) जो लोग परलोक और मृत्युपश्चात् जीवन में विश्वास नहीं करते। इस परिभाषा के अनुसार केवल चार्वाक दर्शन जिसे लोकायत दर्शन भी कहते हैं, भारत में नास्तिक दर्शन कहलाता है और उसके अनुयायी नास्तिक कहलाते हैं।
(3) जो लोग ईश्वर (खुदा, गॉड) के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। ईश्वर में विश्वास न करनेवाले नास्तिक कई प्रकार के होते हैं। घोर नास्तिक वे हैं जो ईश्वर को किसी भी रूप में नहीं मानते। चार्वाक मतवाले भारत में और रैंक एथीस्ट लोग पाश्चात्य देशें में ईश्वर का अस्तित्व किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते। अर्धनास्तिक उनको कह सकते हैं जो ईश्वर को सृष्टि के पालक और संहारक के रूप में नहीं मानते।
आधुनिक भारत में नास्तिकता का उभार-
मद्रास सेकुलर सोसाइटी ने संभवतः कार्ल मार्क्स से प्रेरित होकर वर्ष 1882 से 1888 के बीच मद्रास से द थिचर (तमिल में तट्टूविवेसिनी) नामक पत्रिका प्रकाशित की। इस पत्रिका ने अज्ञात लेखकों द्वारा लिखे गए लेख और लंदन सेकुलर सोसाइटी के जर्नल से पुनर्प्रकाशित आलेखों को लिखा और प्रकाशित किया। इसे देश में नास्तिकता की दिशा में एक बड़ा कदम माना गया।
पेरियार ई. वी. रामसामी (1879-1973) स्व-सम्मान आंदोलन के एक नास्तिक और बुद्धिवादी नेता थे। असंबद्धता पर उनके विचार जाति व्यवस्था के उन्मूलन पर आधारित थे। जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए उन्होंने धर्म को त्यागने पर जोर दिया।
सत्येंद्र नाथ बोस (1894-1974) एक नास्तिक भौतिक विज्ञानी थे, जो गणितीय भौतिकी में विशेषज्ञता रखते थे। बोस-आइंस्टीन के आंकड़ों के लिए नींव और बोस-आइंस्टीन घनीभूतता के सिद्धांत को प्रदान करते हुए 1920 के दशक में क्वांटम यांत्रिकी पर उत्कृष्ट कार्य के लिए उन्हें जाना जाता है।
मेघनाद साहा (1893 – 1956) एक नास्तिक खगोल- भौतिकवादी थे। उन्हें साहा समीकरण के विकास के लिए जाना जाता था, जो सितारों में रासायनिक और भौतिक स्थितियों का वर्णन करता था।
भगत सिंह (1907-1931) एक भारतीय क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह को ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल करने के लिए फांसी दी गई थी। उन्होंने मौत से पहले जेल में‘मैं नास्तिक क्यों हूं’पुस्तक लिखी थी। यह पुस्तक आज की युवा पीढ़ी में बहुत लोकप्रिय है।
सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर (1910- 1995) खगोल- भौतिकीविद, घोर नास्तिक थे। उन्हें सितारों की संरचना और विकास पर अपने सैद्धांतिक काम के लिए जाना जाता था। उन्हें 1983 में भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
गोपाराजू रामचंद्र राव (1902-1975) को उनके उपनाम‘गोरा’के नाम से जाना जाता था। वे एक सामाज सुधारक, जाति-विरोधी कार्यकर्ता और नास्तिक थे। उन्होंने अपनी पत्नी सरस्वती गोरा (1912-2007), जो नास्तिक होने के साथ- साथ सामाजिक सुधारक भी थीं, के साथ 1940 में नास्तिक केंद्र की स्थापना की। नास्तिक केंद्र सामाजिक परिवर्तन के लिए काम करता रहा एक संस्थान है। गोरा ने 1972 की अपनी किताब‘सकारात्मक नास्तिक’में सकारात्मक नास्तिकता के बारे में विस्तार से लिखा। गोरा ने 1972 में पहले विश्व नास्तिक सम्मेलन का भी आयोजन किया। इसके बाद नास्तिक केंद्र ने विजयवाड़ा और अन्य स्थानों में कई विश्व नास्तिक सम्मेलनों का आयोजन किया।
अमर्त्य सेन (1933-) विख्यात अर्थशास्त्री, दार्शनिक और महान विचारक भी एक नास्तिक हैं। उनका मानना है कि यह हिंदू धर्म, लोकायत में नास्तिक स्कूलों में से एक के साथ जुड़ा हो सकता है। अर्थशास्त्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
नास्तिक अर्थात् अनीश्वरवादी लोग सभी देशों और कालों में पाए जाते हैं। इस वैज्ञानिक और बौद्धिक युग में नास्तिकों की कमी नहीं है। बल्कि यह कहना ठीक होगा कि ऐसे लोग आजकल बहुत कम मिलेंगे जो नास्तिक (अनीश्वरवादी) नहीं है। नास्तिकों का कहना यह है कि ईश्वर में विश्वास करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। सर्जक मानने की आवश्यकता तो तभी होगी जब कि यह प्रमाणित हो जाए कि कभी सृष्टि की उत्पत्ति हुई होगी। यह जगत् सदा से चला आ रहा जान पड़ता है। इसके किसी समय में उत्पन्न होने का कोई प्रमाण ही नहीं है। उत्पन्न भी हुई तो इसका क्या प्रमाण है कि इसकी उत्पत्ति विशेष व्यक्ति ने की हो। सृष्टि का चालक और पालक मानने की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जगत् में इतनी मारकाट, इतना नाश और ध्वंस तथा इतना दु:ख और अन्याय दिखाई पड़ता है कि इसका संचालक और पालक कोई समझदार, सर्वशक्तिमान् एवं अच्छा भगवान नहीं माना जा सकता। ।
-संकलन एवं प्रस्तुति: एचएनपी सर्विस