कुल्लू। हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक सितंबर 2014 को अपने एक ऐतिहासिक फैसले में मंदिरों में अस्था के नाम पर निरीह पशुओं की बलि
लोकतांत्रिक देश में अपने को राजा कहलवाने वाले और स्वयं को देवतुल्य मानकर अपनी पालकी खिंचवाने के शौकिनों को हाईकोर्ट के आदेश का पालन करना चाहिए। ऐसा पहली बार नहीं है कि परम्परा बदली, पहले भी बदलाव होते आए हैं जिन्हें देवताओं और देवलुओं ने सहर्ष स्वीकार किया है।
“पुरानी नीति छोड़नी नहीं, नयी नीति लानी नहीं” का नारा देने वाले धर्मान्ध और मांसलोलुप स्वयंभू छड़ीबदार और कारदारों को याद रखना चाहिए कि बदलाव प्रकृति का नियम है। पुराने नियम टूटते हैं और नए बेहतर नीति-नियम बनते हैं। पहले भी दशहरे का स्वरूप बदलता रहा है। वर्ष 1952-53 में जब मुजारा अधिनियम लागू हुआ था तब मुजारे देवताओं की जमीनों को हड़प कर मालिक बन गए। देवताओं की आय का साधन बंद हो गया और उन्होंने तुरंत दशहरे में आना बंद कर दिया और उस वर्ष दशहरा नहीं हुआ।
वर्ष 1971 में दशहरे में हुए गोलीकांड के बाद लगातार दो वर्ष तक रघुनाथ जी की मूर्ति ढालपुर मैदान में नहीं लाई गई तब भी दशहरापर्व का आयोजन सफलतापूर्वक किया गया था। यहां गौर करने वाली बात यह है कि दशहरापर्व के दौरान कुछ देवताओं का धुर विवाद हमेशा से ही रहा है इस बारे में देवताओं के विवाद कोर्ट-कचहरी तक भी पहुंचे। पुराने समय में 365 देवता दशहरे की शोभा बढ़ाते थे, लेकिन लोकतांत्रिक देश में राजबाड़ाशाही के दखल से नाराज कई देवताओं ने मेले में आना बंद कर दिया है। अब 120-130 देवता ही दशहरे में हाजरी भरते हैं।
मीडिया के कुछ हिस्सों में यह खबरें छपी कि बलि नहीं होगी तो हिडिम्बा दशहरे में नहीं आएंगी। यह भ्रम फैलाने का भी प्रयास किया जा रहा हैकि हिडिम्बा के न आने से अनिष्ट होगा। बलि समर्थकों का तर्क है कि बलियां वैदिक काल से चली आ रही हैं। तब घोड़े की बलि अश्वमेध, गाय की बलि गौमेध और मनुष की बलि को नरमेध कहा जाता था। यह बात दूसरी है कि नर, अश्व और गौ को बलि के बाद जीवित किया जाता था (यह दावा बलि समर्थक करते हैं)। यहां यह बताना अनिवार्य है कि लंका दहन में पहले सात जन्तुओं की बलि दी जाती थी। इसमें एक भैंसा, एक मेढ़ा, एक मछली, एक मुर्गा, एक केकड़ा, एक सुअर और एक फड़फा को मौत के घाट उतारा जाता था। कालांतर में सुअर और फड़फे (एक तरह की मकड़ी) की बलि बंद की गई। इसके कारण स्पष्ट नहीं है, लेकिन कोई दैवीय प्रकोप नहीं हुआ।
दशहरे में ढुंगरी माता यानि देवी हिडिम्बा और राजा की उपस्थिति के बारे में भी समझना अतिआवश्यक हो जाता है, क्योंकि हिडिम्बा की भूमिका को समझे बगैर इस पूरे विवाद की तह तक नहीं पहुंचा जा सकता। मान्यता है कि कुल्लू राज्य का संस्थापक राजा विहंगमणीपाल को हिडिम्बा के आशिर्वाद से राजगद्दी मिली थी। दशहरे के अंत में जब लंका दहन के बाद बलियों का एक बड़ा हिस्सा हिडिम्बा को जाता है। हिडिम्बा चूंकि आसुरी शक्ति की प्रतीक थी इसलिए राजा देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि देता है और भैंसे की गर्दन पर पहला प्रहार राजा करता है। राजा को राजगद्दी देवी के आशीर्वाद से मिली थी, इसलिए वह देवी को प्रसन्न करने के लिए हर वर्ष दशहरे के आखिर में बलियां देता है। हैरानी की बात यह है कि दशहरा को बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व माना जाता है, लेकिन यहां तो उल्टे आस्था के नाम पर पांच-सात बेजुवानों को मारकर अच्छाई पर कालिख पोती जाती है। स्वतंत्रता बाद जब राजे-रजवाड़े नहीं रहे तो यह प्रथा स्वत: ही समाप्त हो जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ राज पाठ चला गया, लेकिन राजाओं की ठसक अभी भी बरकरार है। और अपनी इसी ठसक को कायम रखने के लिए देवनीति की आड़ में भोले-भाले लोगों का उलझा कर अपनी राजनीति चमकाई जा रही है।
प्राचीन अवधारणा: पुराने समय में जब अस्पताल नहीं होते थे तो बीमार होने पर लोग देवताओं की शरण में जाते थे, देवता लोगों को पाप कर्म से दूर रहने साफ सफाई रखने और नशों से दूर रहने की सलाह देते थे और जल्द ठीक होने का भरोसा देते थे। देवाज्ञा का अक्षरशः पालन करने पर बीमार व्यक्ति ठीक होते थे और उनकी देवताओं के प्रति आस्था और मजबूत होती थी। इसमें समझने वाली वैज्ञानिक बात यह है कि मनुष्य के शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता होती है जिससे मनुष्य बीमार होने पर धीरे-धीरे ठीक होता है। दूसरा और अहम कारण मनोविज्ञानिक है जब कोई बीमार व्यक्ति मानसिक रूप से यह मान ले कि वह ठीक नहीं होगा तो उसे कितनी भी दवाएं और दुआएं दो वह ठीक नहीं होता, ऐसे में जब देवता ने ठीक होने का विश्वास दिया है तो वह मानसिक रूप से मजबूत होता है और बीमारी दूर भाग जाती है।
जीभ के चटोरों ने रची परंपरा: पुराने समय में खानपान के साधन कम थे। जब गुड़ को मीठाई का दर्जा प्राप्त था तो उस समय किसी गांव अथवा घर में मांसाहार का आयोजन होना एक बड़ी बात मानी जाती थी। आरंभ में गांव के बड़े-बड़े कद्दावर व्यक्ति अपने घर में धाम का आयोजन करते और उसमें देवता को बुलाकर बकरे-भेडू इत्यादि काटते। इस आयोजन में अपनी सामर्थ्य अनुसार लोगों को धाम के लिए आमंत्रित किया जाता था। धीरे-धीरे प्रभावशाली लोग गूर के माध्यम से अन्य लोगों को भी ऐसे आयोजन करवाने के लिए प्रेरित करने लगे और इसने बाद में प्रथा का रूप ले लिया। पहाड़ों में यह परंपरा आज भी कायम है।
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