मानव जीवन का सबसे प्राचीन दर्शन चार्वाक दर्शन है, जिसे लोकायत दर्शन भी कहते हैं। लोकायत का शाब्दिक अर्थ है ‘जो मत लोगों के बीच व्याप्त है, जो विचार जनसामान्य में प्रचलित हैं।’ प्रचलित धारणा यही है कि चार्वाक शब्द की उत्पति चारु + वाक् (मीठी बोली बोलने वाले) से हुई है। (चारुः लोकसम्मतो वाको वाक्यं यस्य सः चारुवाकः
भारतीय दर्शन में ‘चार्वाक’शब्द सामान्यतः नास्तिकों और भौतिकवादियों के लिये प्रयोग होता है। नास्तिक मत बहुत प्राचीन है। इसका अविर्भाव उसी समय में समझना चाहिए जब वैदिक कर्मकांड़ों की अधिकता लोगों को खटकने लगी थी। चार्वाक दर्शन जीवन के हर पक्ष को सहज दृष्टि से देखता है। जीवन के प्रति यह सहज दृष्टि ही चार्वाक दर्शन है। जिस प्रकार आस्तिक दर्शनों में शंकर दर्शन शिरोमणि के रूप में स्वीकृत है, उसी प्रकार नास्तिक दर्शनों में चार्वाक दर्शन को शिरोमणि माना जाता है। चार्वाक को नास्तिक शिरोमणि इसलिए भी माना जाता है क्योंकि वह विश्व में विश्वास के आधार पर किसी न किसी रूप में मान्य ईश्वर की अलौकिक सर्वमान्य सत्ता को सिरे से नकार देता है। इनके मतानुसार ईश्वर नाम की कोई वस्तु संसार में नहीं है। नास्तिक शिरोमणि चार्वाक जो कुछ बाहरी इन्द्रियों से दिखाई देता है, अनुभूत होता है, उसी की सत्ता को स्वीकार करता है। चार्वाक के सिद्धान्त में प्रत्यक्ष प्रमाण को छोड़ कर कोई दूसरा प्रमाण नहीं माना गया है।
चार्वाक दर्शन के कुछ मुख्य बिंदुओं को आप भी जानें-
-मनुष्य जब तक जीवित रहे, सुखपूर्वक जिये। ऋण करके भी घी पिये। अर्थात् सुख-भोग के लिए जो भी उपाय करने पड़े, करे। दूसरों से उधार लेकर भी भौतिक सुख- साधन जुटाने में हिचके नहीं। (यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्)
-परलोक, पुनर्जन्म और आत्मा- परमात्मा जैसी बातों की परवाह न करें। जो शरीर मृत्यु पश्चात् राख हो चुका हो, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहां उठता है? (भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः)
-तीनों वेदों के रचयिता धूर्त प्रवृत्ति के मसखरे निशाचर रहे हैं, जिन्होंने लोगों को मूर्ख बनाने के लिए आत्मा- परमात्मा, स्वर्ग- नर्क, पाप- पुण्य जैसी बातों का भ्रम फैलाया है। (त्रयोवेदस्य कर्तारौ भण्डधूर्तनिशाचराः)
-जीवन में जो भी है, इस शरीर की सलामती तक ही है। उसके बाद कुछ भी नहीं बचता।
-पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार ही तत्व हैं, जिनसे सब कुछ बना है। इन्हीं चारों तत्वों के मेल से यह देह बनी है। इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसे लोग आत्मा कहते हैं। शरीर जब नष्ट हो जाता है, तो चैतन्य भी खत्म हो जाता है।
-स्त्री, पुत्र और अपने कुटुम्बियों से मिलने और उनके द्वारा दिये जाने वाले सुख ही सुख कहलाते हैं। उनका आलिंगन करना ही पुरुषार्थ है।
-चार महाभूतों के अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य पदार्थ नहीं है। चैतन्य शरीर ही आत्मा है। शरीर के रहने तक ही चैतन्य रहता है और शरीर के नष्ट होने पर चैतन्य भी समाप्त हो जाता है।
– जिस प्रकार गुड, जौ, महुआ आदि को मिला देने से काल क्रम के अनुसार उस मिश्रण में मादकता उत्पन्न होती है, उसी प्रकार चतुर्भूतों के विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न होता है।
-प्रत्यक्ष दृश्यमान राजा ही ईश्वर है। वह अपने राज्य का तथा उसमें रहने वाली प्रजा का नियन्ता होता है। अत: उसे ही ईश्वर मानना चाहिये।
– अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है। धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है, क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है।
– पाखण्डी धूर्त्तों के द्वारा कपोलकल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है, बल्कि उसमें की जाने वाली पशु हिंसा के कारण वह अधर्म ही है।
– जो कार्य शरीर को सुख पहुंचाये, उसी को करना चाहिये। जिसमें इन्द्रियों की तृप्ति हो, मन आन्दित हो, वही कार्य करना चाहिये।
– जब तक शरीर है तब तक मनुष्य जो नाना प्रकार के कष्ट सहता है, वही नरक है। इस कष्ट समूह से मुक्ति तब मिलती है जब देह चैतन्य रहित हो जाता है अर्थात् मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है, क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव नहीं होता।
– परलोक सुधारने के नाम पर किए जाने वाले यज्ञ, पूजा, पाठ, तपस्या आदि वैदिक कर्मकांड वास्तव में जन सामान्य को ठगने का धंधा है। कुछ धूर्तों ने इन्हें अपनी आजीविका एवं उदरपूर्ति के लिए गढ़ा है। इन वैदिक कर्मों का फल आज तक किसी को भी दृष्टि गोचर नहीं हुआ है।
(संकलन- एचएनपी सर्विस)