देहरादून। पहाड़ी क्षेत्रों को न्याय दिलाने के नाम पर पृथक उत्तराखंड राज्य की स्थापना हुई थी, लेकिन हमारे पहाड़ी नेता तो और भी गए-गुजरे साबित हुए। सरकारी उपेक्षा के चलते पहाड़ों से इस कदर पलायन हो रहा है कि आज ढाई लाख से अधिक घरों में ताले लग गए हैं और हजारों गांव खंडहरों में तब्दील होते जा रहे हैं।
संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय पहाड़ी जनता ने यह आरोप लगाते हुए बड़े- बड़े आंदोलन किये कि लखनऊ में बैठी सरकारें विकास के मामले में पहाड़ी क्षेत्रों की उपेक्षा कर रही हैं। आंदोलन कामयाब हुआ और करीब 16 वर्ष पूर्व पृथक उत्तराखंड राज्य की स्थापना कर दी गई। लेकिन यहां हमारे पहाड़ी नेताओं ने तो और भी अंधेरगर्दी मचाई। आज तक भी सरकारें और सरकारी अमला (चुनावों को छोड़कर) दूरस्थ पहाड़ों तक नहीं पहुंच पाया। जानकारों का कहना है कि पहाड़ों में ऐसी स्थिति संयुक्त उत्तरप्रदेश के समय भी नहीं थी। उस समय पहाड़ों में जो कुछ उद्योग लगे थे, वे भी आज बंद पड़े हैं।
पहाड़ों में शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर जीवन यापन की तमाम सुविधाएं जब चौपट हो गईं तो लोगों को मजबूरन अपने घरबार छोड़ कर वहां से पलायन करना पड़ा। इतना पलायन तो शायद भारत- पाक सीमावर्ती क्षेत्रों में भी नहीं हुआ होगा, जहां आए दिन दोनों ओर से गोलियां चलती रहती हैं।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड राज्य बनने के बाद प्रदेश के कुल 16,793 गांवों में से तीन हजार गांव पूरी तरह खाली हो गए हैं। ढाई लाख से ज्यादा घरों में ताले लटके हुए हैं। पहाड़ी शैली में निर्मित भव्य मकानों में झाड़ियां उग आई हैं। अल्मोड़ा, पौड़ी, टिहरी और पिथौरागढ़ जिलों में सर्वाधिक पलायन हुआ है। सर्वाधिक अल्मोड़ा जिले में 36,401 और पौड़ी जिले में 35,654 घर खंडहर हो चुके हैं। उसके बाद टिहरी और पिथौरागढ़ जिलों का नंबर है। टिहरी में 33,689 और पिथौरागढ़ में 22,936 घरों में ताले लगे हुए हैं। पूरे प्रदेश में कुल मिलाकर ढाई लाख घरों में ताले लग चुके हैं, जो उत्तराखंड में बनी सभी सरकारों के लिए शर्म से डूब मरने की बात है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के यहां हाल ही में आयोजित दो दिवसीय सेमिनार में भी ‘पहाड़ों से पलायन’ ही मुख्य चर्चा का विषय रहा। आयोग ने भी इसके लिए राज्य में बनी सरकारों को ही जिम्मेदार ठहराया और अधिकारियों से इस बारे में जवाब मांगा। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्यगण एवं न्यायाधीश पीसी घोष, डी. मुरुगेशन और ज्योति कालरा ने सेमीनार में कहा कि, “शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है, लेकिन विडंबना ही है कि सरकारें इन सेवाओं को उपलब्ध कराने में नाकाम रही हैं।”