उत्तर भारत में इन दिनों महिलाओं की चोटियां कटने की खबरों का बाजार गर्म है। कुछ न्यूज चैनल तो इन्हीं खबरों में टीआरपी तलाश रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे कुछ वर्ष पूर्व न्यूज चैनलों के स्टूडियोज में विभिन्न देवी- देवताओं की मूर्तियां दूध पीती दिखाई दे रही थीं। शायद आपको याद होगा कि समाज में फैले इसी तरह के अंधविश्वास, अंधश्रद्धा या कहें जनभ्रम के प्रति जनता को जागरूक करते हुए ही विख्यात समाजसेवी डा. नरेंद्र दाभोलकर की महाराष्ट्र में 20 अगस्त 2013 को दक्षिणपंथी असामाजिक तत्वों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।
डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की बहुचर्चित किताब ‘अंधविश्वास उन्मूलन’ भाग -2 पेज 78 पर ‘चोटी कटवा सिरीज’ की तरह की ही एक घटना का वर्णन है, जिसमें बताया गया कि महाराष्ट्र के भानमती में एक स्कूल की लड़कियों की आंखों में अचानक कंकर मिलने की खबरें आने लगी थीं। उसके बाद अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (जिसके दाभोलकर अध्यक्ष थे) की तरफ से उस गांव का दौरा किया गया। लंबी जांच पड़ताल के बाद पता चला कि अपने ही घरों में उपेक्षित लड़कियों ने मिलकर यह कदम उठाया था। वे खुद ही अपनी आंखों में कंकर डाल लेती थीं और शोरगुल करने लगती थीं ताकी उन पर लोगों और घरवालों का ध्यान जाये और उन्हें कम काम करना पड़े।
फिलहाल उत्तर भारत के कई इलाकों में महिलाओं की चोटी काटने की खबरें जोर- शोर से आ रही हैं और इनकी संख्या 100 को पार कर चुकी है। राजस्थान के बीकानेर से शुरू हुआ यह खेल हरियाणा होते हुये उतर प्रदेश तक पहुंच चुका है। अकेले हरियाणा में 41 चोटियां काटी जा चुकी हैं। इससे बचने के लिए लोग निम्बू, मिर्ची, पंजे के निशान, नीम के पत्ते घर के बाहर टांग रहे हैं। समस्या यह है कि मामला अब ‘जनभ्रम’ से आगे बढ़ते हुये हिंसा का रूप ले चुका है, जिसकी आग में आगरा की 62 वर्षीय महिला मानदेवी की हत्या लोगों ने पीट- पीट कर कर दी।
गौरतलब है कि जिन- जिन महिलाओं की चोटी कटी हैं, सभी ने यही कहा है कि वो नींद में थीं और कोई उनकी चोटी काटकर ले गया। कौन है इन घटनाओं के पीछे? क्या यह अंधश्रद्धा का मामला है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि अपने घर में उपेक्षित महिलाएं ध्यान बंटाने के लिये ऐसा कर रही हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि महिलाएं उन्माद की स्थिति में स्वयं ही अपनी चोटियां काट रही हों। इस उन्माद में कइयों के शरीर पर देवी आने की बात कही जाती है- जो एक तरह के मनोविकार की अवस्था होती है। इसमें कुछ भी अंजाम देने वाले को भी बाद में याद ही नहीं रहता कि उसने किया है?
मनोवैज्ञानिकों के हिसाब से चोटी काटे जाने की घटना ‘जनभ्रम’ का मामला है, जिसे डीसोसियेटिव रिएक्शन कहा जाता है। इसका शिकार ऐसे लोग होते हैं जो अवसाद के शिकार रहते हैं और खुद को नयी परिस्थितियों में ढाल नहीं पाते हैं। ऐसे में यह स्थिति तेजी से फैलती है और नए इलाकों, जहां अवसाद ग्रस्त लोग रहते हैं, को भी अपनी पकड़ में लेती है।निश्चित रूप से ये सारे प्रश्न है, जिनका जवाब खोजना जरूरी है। बेहतर हो तर्कशील लोग, समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक सभी मिलकर इसका जवाब ढूंढने का प्रयास करें।
यही नहीं, ऐसे तत्वों से सचेत रहने की भी आवश्यकता है जो जनता में अंधविश्वास के हिमायती हैं और नहीं चाहते कि लोगों में वैज्ञानिक सोच का प्रकाश पहुंचे। डा. नरेंद्र दाभोलकर को भी ऐसे ही तत्वों ने अंततः 20 अगस्त 2013 को गोली से उड़ा दिया था। उन्हें बार- बार जान से मारने की धमकियां दी जा रही थीं। चोटी कटवा जैसी घटनाओं के प्रति समाज को जागरूक करने में डा. नरेंद्र दाभोलकर की शहादत बेकार नहीं जानी चाहिये। यह हम सभी की जिम्मेदारी है।
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