हमारी हिंदी में दो सनातन वाक्यों को खूब घिसा जाता है। पहला- ‘बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करोगे?’ दूसरा- ‘अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने होंगे।’
जैसे ही आप अफगानिस्तान की औरतों की पाशविक जीवन स्थितियों पर मुंह खोलेंगे तो तत्काल प्रतितर्क आ जाएगा कि भारत में औरतों की कौन सी अच्छी स्थिति है। उस पर काहे नहीं बोलते।
चलिए, पहले भारत पर ही बोल लेते हैं। स्थिति यह है, कि रोज़ बलात्कार होते हैं, औरतों की हत्याएं होती हैं और राष्ट्र-राज्य की भाषा में ‘क़ानून अपना काम करेगा’ चलता है। कुछ दिन बाद जनस्मृति से सब ख़त्म हो जाता है। सचमुच हालत ख़राब हैं। फ़ेसबुक पर क्रांतियां जारी रहती हैं। हर कोई हर किसी से भिड़ पड़ने को तैयार है।
कितना सुंदर परिदृश्य है, पिछले कल मुंबई में बलात्कार और लड़की की हत्या पर बात करने की बजाए, हमारे समकालीन लेखक और कवि युवा लेखिकाओं को चवन्नी-अठन्नी करार दे रहे हैं और जवाब में विपक्षी ख़ेमा एक वरिष्ठ लेखिका को छेद वाला पैसा स्थापित कर रहा है। यह कौन सी भाषाएं हैं? यह कौन से साहित्यिक सरोकार हैं? एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए विचार के नाम पर। इतना तो आप फुर्सत में हैं, औरतों की वर्तमान हालत पर आंदोलन चलाने से आपको कौन रोक रहा है और फिर स्थिति को कैसे ख़राब कहते हो। यह खुद से पूछिए और खुद को जवाब दीजिए। बहुत हो गया बिगाड़ के डर से ईमान की बात और अभिव्यक्ति के ख़तरे बग़ैरा की दुहाइयां। न भयानक शोर में गुम हो जाइए और न चुनी हुई चुप्पियों का सहारा लीजिए। और दोषारोपण तो बिल्कुल मत कीजिए। खुद आप क्या करते हैं, इसका आत्मावलोकन कीजिए।
अब हमने भारत की स्थिति को बुरा कह ही दिया तो लगे हाथ अफगानिस्तान की औरतों पर बात करने में बुराई या अपराधबोध महसूस नहीं होगा। यह मेरी आत्मस्वीकारोक्ति है कि मुझे मुस्लिम समाज की परम्पराओं की कोई समझ या ज्ञान नहीं है। मैंने नज़दीकी से इस समाज को नहीं देखा है, फिर परखने का मतलब क्या। लेकिन जो आज दिख रहा है, उससे मेरी सहमति बिल्कुल नहीं है। औरतों को परदे में कभी- कभार देखा जरूर था, किंतु जब इमरान खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने तो उनकी सरकार द्वारा जारी तस्वीर में एक पर्दानशीं औरत को देखकर सिर्फ़ हैरानी नहीं हुई, बल्कि अचानक अविश्वास हुआ कि यह आदमी ऐसा कैसे कर सकता है, जिसने एक विवाह लंदन की एक पोस्ट-मॉडर्न औरत के साथ किया था। जैसा कि अक्सर होता है, समय के साथ उस स्मृतिचित्र का भी लोप हो गया। लेकिन आज जब काबुल यूनिवर्सिटी से औरतों के तालिबान समर्थन सम्मेलन के चित्र सामने आए तो मन में पीड़ाजनक धड़ाका हुआ। आख़िर इस संसार में मनुष्य इतना पाशविक कैसे हो सकता है। मनुष्य अपने हर सौंदर्य को खुद कैसे नष्ट कर सकता है? और आख़िर क्यों संसार इस पर ख़ामोश है। क्यों नहीं दुनिया की औरतें अपने अपने मुल्कों में प्रदर्शन/आंदोलन करतीं?
देखिए, अगर तालिबान सही कर रहा है और इस पर पसरी खामोशी उचित है, तब भी मैं निजी स्तर पर ऐसी इनह्यूमेन हालत पर चुनी हुई चुप्पी अख़्तियार नहीं कर सकता। उसका कोई असर हो या बिल्कुल न हो, यह मेरा सरोकार नहीं है। आप अपना फ़ैसला खुद लेने लिए स्वतंत्र हैं।
-लेखक राजकुमार राकेश विख्यात साहित्यकार हैं और राजनीति एवं समसामयिक विषयों पर तीखी टिप्पणियों के लिए भी जाने जाते हैं।
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