नाहन (सिरमौर)। हिमाचल प्रदेश के ऊपरी क्षेत्रों में सर्दियों के मौसम में लोगों की एक पसंदीदा डिश है- बिच्छु बूटी का साग। गांवों में इसे ‘भाभरो रा साग’ कहा जाता है। जी हां, वही बिच्छु बूटी, जिसे आप शातिर बच्चों की मुरम्मत करने में प्रयोग लाते रहे हैं। इसे पंजाब के विख्यात सरसों के साग से भी अधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक माना जाता है, लेकिन इसका कांबिनेशन मक्की की रोटी के साथ ही बैठता है, जिस तरह ‘सरसों का साग और मक्की की रोटी’ प्रचलित है। सरसों का साग ठंडा होता है, परन्तु भाभर (बिच्छु बूटी) का साग गर्म तासीर का होता है। इसलिए इसे सर्दियों के मौसम में ही खाया जाता हैं। बिच्छु बूटी में आयरन भरपूर मात्रा में होता है।
पहाड़ों में भाभर की कई प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें केवल गहरे हरे रंग के छोटी पत्तियों वाले भाभर का ही साग बनाने में प्रयोग किया जाता है। महिलाएं शाम के समय एक हाथ में टोकरी और दूसरे हाथ में चिमटा लिए भाभर चुनने निकलती हैं और चिमटे की मदद से भाभर की कोमल टहनियां तोड़- तोड़ कर टोकरी में डालती रहती हैं। बाद में उसे आग की लपटों में हल्का झुलसाया जाता है। इससे एक तो भाभर के महीन कांटे जल जाते हैं और साथ ही साग को एक स्मोकी फ्लेवर भी मिल जाता है।
इस अर्द्ध झुलसे भाभर को फिर मुट्ठीभर चावल के साथ पकाया जाता है और पकने के बाद छोंका लगाया जाता हैं। मक्की की रोटी के साथ खाते समय मक्खन भी हो तो खाने का आनन्द कई गुना बढ़ जाता है। यह सब्जी पहाड़ों पर ही खाई जाती है। सिरमौर जिला में तो हाटी समुदाय को भाभर के साथ अन्य सन्दर्भों में भी शुमार माना जाता है। जनश्रुतियों के अनुसार जौनसार भाबर का नाम इसी भाभर के पौधे के कारण पड़ा है। खरपतवार की तरह उगने वाले इस भाभर के रेशे भी निकलते हैं, जो रस्सियां बनाने के काम आते हैं। (प्रस्तुति- शेरजंग चौहान)
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