मेरी जिन्दगी उसके साथ बीती है। आज प्रज्ञा के जगत में उसे विश्व- चेतना का वाहक माना जाता है।सितम्बर, 1970 में जब उसने मनाली में नवसंन्यास का सूत्रपात किया, तब मैं मैत्रेय के गुह्य मंडल के सबसे कनिष्ठ, लेकिन अघोषित सदस्य के रूप में मनाली में मौजूद था। उन्हीं दिनों उस पर भगवा ब्रिगेड ने पहला मुकदमा दर्ज कराया। आरोप था- “यह देवताओं की घाटी में गन्दगी फैला रहा है।”
दरअसल, वह कर क्या रहा था? कृष्ण- चेतना पर नर-नारियों से भरी सभाओं में बोल रहा था। सवाल यह था कि अगर उसे इस जन्म में सचमुच कृष्ण से कहीं अधिक छलिया भूमिका निभानी है तो सबसे पहले हिन्दू जड़ मानसिकता को ठगने और उसी के प्रतीकों के ज़रिये उसे अपना दास और फिर सेवक बनाना और विश्वव्यापी काम पर लगाना होगा। इसी बल पर हर ‘धर्म’ यानी अधर्म की धज्जियां उड़ाने की योजना बनी।
बाहरी प्रभाव के लिए सबसे पहले माला-चोला चुने गए। आंतरिक प्रभाव के लिए उसके पास दो प्रमुख औज़ार पहले से थे- ध्यान और प्रेम ! ज्ञान, स्मृति और संवेदना की दृष्टि से वह आज तक का सर्वाधिक प्रज्ञावान व्यक्ति था और है। उसने निरन्तर अपने शब्दों को बदला, अपने प्रयोग बदले, अपने लोग बदले। उसके पास विश्व के श्रेष्ठतम स्त्री- पुरुष उड़े चले आए। उसे भारत के सबसे ढोंगी लोगों को भी संन्यासी बनाना पड़ा, वरना ये गधे लोग उसके काम को एक इंच न बढ़ने देते। उसके शब्दों के अंतर्विरोध और परस्पर विरोध के पीछे के मंतव्य को देख सकने वाले ही उसे समझ सकते हैं।
उसी वर्ष 15 दिसंबर को मैं सरकारी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हुआ। सब चकित थे कि स्कूल से भागा हुआ कमउम्र लड़का अध्यापक कैसे हो गया? इससे अधिक हैरानी उन्हें इस बात पर थी कि मैं 1969 से बड़ी- बड़ी कहानियां कैसे लिखने लग गया था? फिर स्वाति मुक्ता और हिमबाला की खोज शुरू हुई जो ‘धर्मयुग’ और ‘कादम्बिनी’ में लिख रही थीं। वे कभी सामने नहीं आईं।
नौकरी तो बहाना थी, होना कुछ और था। पुणे कम्यून की पत्रिका ‘यैस ओशो’ के फरवरी और मार्च अंकों में मैंने ओशो द्वारा छिपाई गई बातों और झूठों पर जो कुछ बताया है, वह उतना ही है, जिसे प्रमाणित भी किया जा सके। असलियत सिर्फ असली लोगों के काम की है। जे.कृष्ण्मूर्ति, ओशो और मैत्रेय ने मिलकर जो किया, वह करिश्मा नयी मनुष्यता के बीज बो चुका है और फसलें आने लगी हैं।
ओशो रजनीश के घर पर मेरे प्रवास, उनके ननिहाल में मेरे दिनों के विवरण और उनकी प्रेयसियों पर मेरे आलेख आप पढ़ ही चुके हैं, कुछ चीज़ें छुपी रह गई हैं और छुपी ही रहेंगी। मेरे पल्ले जितना पड़ा,उसे भी बहुत कम बताया है। शब्दों में बहुत मज़बूरी में कहा जाता है। साथ होने में, समकक्ष होने में अनकहा भी सुन- समझ लिया जाता है। तो भी कई आयामों से कहना-सुनना होता है। यह काम रुकता नहीं है। लेकिन नाचते- गाते और मस्त रहते!
ओशो रजनीश पर बहुत गहरी नज़र रखने वाले रहस्यदर्शी रावी से अपने नाते के सम्बन्ध पर मैं अपनी पिछली डाक में बता ही चुका हूं। रावी की सहकर्मी स्नेहशिखा और सांध्यशिष्या की अप्रत्यक्ष मदद से मुझे विश्व की कुछ ऐसी स्त्रियां खोजनी थीं, जो अगले काम में सहज ही प्रवृत्त हो सकें। हिंदी जगत में भी, जो सबसे बंजर और ढोंगी पट्टी है और पंजाबी की एक साहसी और मौजी लेखिका के हिंदी अनुवादों से थोड़ा- बहुत अमृत ले पाती है। वह भी ढोंग करने के लिए। थोड़ा-बहुत साहस उसे मुसलमान लेखिकाओं से मुफ्त में मिलता है। पुरुष लेखक तो हिंदी में चेतना के शत्रु हैं। प्रेमचंद और मुक्तिबोध की जानकारी और दोहरावों में कोल्हू के बैल। नामवर जब तक न कह दें, किसी का नाम भी नहीं जानेंगे। इनका अंतिम तीर्थ हिंदी का पुस्तक मेला !
इस ढोंग को भी हमें बेपर्दा करना था। लेकिन वे तो कहानियां और किताबें पढ़े बिना मेरी सहलेखिका की खोज में दौड़ पड़े। वे उसे वैसे ही काबू करना चाहते थे, जैसे औरों को काबू करके चर्चित, सम्मानित- पुरस्कृत कराते थे। फिर मुझे सूंघ- भांप कर सहम गए। हमने न सिर्फ घर- घर आठ भाषाओं में ढाई हज़ार बालकथाएं पहुंचाईं, हिंदी की हर पत्रिका में आलेख और बड़ी कहानियां भी लिखीं। हर संपादक को एक पत्र जाता था, जिसमे हमारे गोपनीय कार्य का उल्लेख रहता था।
सैन्नी अशेष को कोई भी आसानी से मूर्ख बना सकता है, यह सब जानते हैं, लेकिन इससे उसे कितने प्यारे लोग मिलते हैं और कैसे उसको मिला काम फलता-फूलता है, इसे बहुत थोड़े लोग जानते हैं। साधारण होने में चेतना- जगत की असाधारणता मौजूद है। इसमें एकाकी साधना बड़ा आनंद है। सफ़र का सुख और आगे की बेफिक्री…। बाकी तो हमारी पुस्तकों के नए संस्करणों में विस्तार से है ही। (लेखक, सैन्नी अशेष विख्यात साहित्यकार, दार्शनिक एवं अध्यात्म प्रेमी हैं।