देहरादून। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सहित विभिन्न संगठनों के बढ़ते दबाव के कारण अंततः उत्तराखंड सरकार ने बीते दस वर्षों में रहे मुख्यमंत्रियों द्वारा की गई घोषणाओं की समीक्षा करने का निर्णय ले लिया। यह पता लगाया जा रहा है कि पृथक राज्य बनने के बाद बीते 16 वर्षों में उत्तराखंड के हालात लगातार क्यों खराब होते चले गए?
सरकारी प्रवक्ता के अनुसार इस संबंध में शीघ्र ही मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के साथ अधिकारियों की एक उच्च स्तरीय बैठक भी होने जा रही है। समीक्षा में यह पड़ताल की जाएगी कि वर्ष 2007 के बाद बने मुख्यमंत्रियों ने जनता से जो वादे किए और घोषणाएं कीं, वो धरातल पर कितनी उतरीं और कितनी हवाई साबित हुईं। इन घोषणाओं पर संबंधित विभागों से भी जवाब मांगा जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में बने मुख्यमंत्रियों की घोषणाओं को लेकर सवाल उठते रहे हैं। दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्रों तक तो सरकार की पहुंच न के बराबर है। वहां संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय जो विकास कार्य चल भी रहे थे, वो भी ठप पड़ गए, जिस कारण रोजगार के लिए गांवों से बेतहाशा पलायन हुआ।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पहाड़ी क्षेत्रों में 3000 गांव पूरी तरह खाली हो गए हैं और ढाई लाख से ज्यादा घरों में ताले लटके हुए हैं। गैर सरकारी आंकड़ा इससे कहीं अधिक बताया जा रहा है। स्थिति यह है कि दूरस्थ क्षेत्रों में समृद्ध पहाड़ी शैली में निर्मित हजारों भव्य मकानों में झाड़ियां उगी देखी जा सकती हैं। पूरे के पूरे गांव खंडहरों में तबदील हो गए हैं।अल्मोड़ा, पौड़ी, टिहरी और पिथौरागढ़ जिलों में सर्वाधिक पलायन हुआ है। अल्मोड़ा जिले में 36,401 और पौड़ी जिले में 35,654 घर खंडहर हो चुके हैं। उसके बाद टिहरी और पिथौरागढ़ जिलों का नंबर है। टिहरी में 33,689 और पिथौरागढ़ में 22,936 घरों में ताले लगे हुए हैं, जो उत्तराखंड में बनी सभी सरकारों के लिए शर्म से डूब मरने की बात है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के यहां हाल ही देहरादून में आयोजित दो दिवसीय सेमिनार में भी ‘पहाड़ों से पलायन’ मुख्य चर्चा का विषय बना था। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्यगण एवं न्यायाधीश पीसी घोष, डी. मुरुगेशन और ज्योति कालरा ने इसके लिए राज्य में बनी सभी सरकारों को जिम्मेदार ठहराया था और अधिकारियों से इस बारे में तुरंत रिपोर्ट तैयार कर भेजने के लिए कहा था।
माना जा रहा है कि इसी दबाव के चलते राज्य सरकार ने यह कसरत शुरू की है। हालांकि इसमें भी प्रश्न उठ रहे हैं कि वर्ष 2007 के बाद बने मुख्यमंत्रियों की ही समीक्षा क्यों, उससे पूर्व बने मुख्यमंत्रियों की क्यों नहीं?