‘स्थानीय पत्रकारों की उपेक्षा के लिए मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वे भी सिर्फ उन्हीं पत्रकारों की ‘व्यवस्थाओं’के लिए चिंतित रहते हैं, जो या तो बाहर से आए हैं या फिर चाटुकार किस्म के हैं। उत्तराखंड का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि बाबा बमराड़ा जैसे वयोवृद्ध राज्य आंदोलनकारी को गांधी पार्क में रात गुजारनी पड़ती है और बाहर से आए पत्रकारों को सरकारी गेस्ट हाउसों में ही नहीं ठहराया जाता, बल्कि जब-तब हेलीकॉप्टर की सैर भी कराई जाती है।’
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देहरादून। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद यहां बनी सभी सरकारों पर सबसे बड़ा आरोप यही लगता रहा है कि उन्होंने हमेशा ही पहाड़ी क्षेत्रों की घोर अनदेखी की। लेकिन इस बार यह आवाज कुछ अलग ढंग से स्थानीय पत्रकारों की ओर से उठी है। उन्हें शिकायत है कि सरकार मीडिया में बाहर से आए पत्रकारों को ही खास अहमियत दे रही है, जबकि मूल उत्तराखंडी पत्रकारों को नजदीक फटकने तक नहीं दिया जाता। इस बारे में पत्रकारों की सोशल मीडिया में आ रही तल्ख टिप्पणियों पर गौर करें तो इसे एक बड़े आंदोलन का आगाज माना जा सकता है।
वरिष्ठ पत्रकार डा. वीरेंद्र बर्त्वाल कहते हैं- “उत्तराखंड में सरकार की नजर में शायद वे ही पत्रकार हैं, जो केवल मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं। कोई पत्रकार सरकार की संस्तुति पर दस समितियों का सदस्य बन जाता है और किसी को मुख्यमंत्री से मुलाकात के लिए दस चाण-बाणों से संस्तुति करानी पड़ती है।”
आंदोलित पत्रकारों ने उदाहरण के लिए देहरादून से प्रकाशित दैनिक ‘न्यूज वायरस’ और इसके संचालक मो. सलीम सैफी को सामने रखा है, जिनका सरकार में कथित रूप से बहुत दबदबा है और सूचना विभाग विज्ञापन देने में उन पर खास मेहरबान रहता है। उनके बारे में वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल फेसबुक में लिखते हैं, “देहरादून में न्यूज वायरस नाम का एक अखबार है। मो. सलीम सैफी साहब का रुतबा इसी अखबार के दम पर है। सरकार में तगड़ी पहुंच है। उत्तराखंड के लोग भले अपने मंत्रियों, विधायकों से मिलने में थर थर कांपें, मगर सलीम सैफी साहब को क्या दिक्कत। भले सूचना विभाग उत्तराखंड के असल पत्रकारों के बारे में न जाने, लेकिन सलीम साहब के लिए तो कारपेट बिछ जाता है।” गोपाल रावत ने बताया कि न्यूज वायरस के सम्पादक मो, सलीम सैफी मूल रूप से मेरठ के वासी हैं और अब उत्तराखंड में अड्डा जमा चुके हैं।
वरिष्ठ पत्रकार मनु पंवार ने बात को आगे बढ़ाते हुए टिप्पणी की, “ऐसे वायरस समय पर न रोके गए तो फिर संक्रमण का खतरा बढ़ना तय है भाई। आप जानते ही हैं संक्रमण बढ़ने पर गैंगरीन हो जाता है। यहां बुनियादी सवाल भूमिपुत्रों के अधिकार का है, जिनके अवसरों पर डाका डालने आततायियों की फौज उत्तराखंड में घुस आई है। इनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिन्हें स्थानीय सरोकारों की कोई फिक्र नहीं। इसलिए प्रतिरोध जरूरी है।”
वे आगे कहते हैं, “ये लोग देहरादून को ऐशगाह समझते हैं और हम इन पर अपना राजस्व लुटा रहे हैं। इसके खिलाफ बोलना होगा। हमारी राजनीति में खोट है, इसलिए वो इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी। लेकिन हमें आवाज उठाते रहना होगा। हमारी ही बिरादरी के लोग इस मसले पर पॉलिटिकली करेक्ट होने की कोशिश न करें।”
वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र अंथवाल ने कहा, “राज्य के पत्रकारों, चाहे वे डेस्क के हों या फील्ड में, सभी को संगठित करने की कोशिश की जा रही है। जल्दी ही आंदोलन के द्वारा असली उत्तराखंडी पत्रकारों की ताकत सरकार को दिखाई जाएगी। वैसे स्थानीय पत्रकारों की उपेक्षा के लिए मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वे भी सिर्फ उन्हीं पत्रकारों की ‘व्यवस्थाओं’के लिए चिंतित रहते हैं, जो या तो बाहर से आए हैं या फिर चाटुकार किस्म के हैं। उत्तराखंड का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि बाबा बमराड़ा जैसे वयोवृद्ध राज्य आंदोलनकारी को गांधी पार्क में रात गुजारनी पड़ती है और बाहर से आए पत्रकारों को सरकारी गेस्ट हाउसों में ही नहीं ठहराया जाता, बल्कि जब-तब हेलीकॉप्टर की सैर भी कराई जाती है।”
सतीश सकलानी लिखते हैं, “पत्रकारिता का ऐसा ही एक जाना माना नाम है- राजीव नयन बहुगुणा। पिछले दिनों तो हमारे मुख्यमत्री जी इनके बिना टॉयलेट भी नहीं जाते थे। अब ये तो भगवान ही जाने टॉयलेट की दिवारों पर वे कौन सी खबरें छापते होंगे।”
बहस में आगे प्रदीप दत्त रतूड़ी जोड़ते हैं, “नेता लोग तो उत्तराखंड का मुंडन करने में लगे हैं, जनता की आवाज का भी मुंडन करने लगे तो समझ लो प्रदेश किस दिशा में जा रहा है। भगवान ही बचाये उत्तराखंड को।” बिजेंद्र पंवार कहते हैं, “समाचरपत्र निकले ना निकले, लिखना पढ़ना आये ना आये, बस सूचना विभाग से मान्यता का कार्ड हासिल होना चाहिए, बस इतना ही काफी है। सचिवालय में बैठना है और चमचागिरी ही तो करनी है। यही हैं आज के सबसे बड़े पत्रकार।”