देहरादून। उत्तराखंड में शासक वर्ग ने वनाधिकार अधिनियन-2006 को ठेंग पर रखा हुआ है। केंद्र
सरकार की कड़ी हिदायतों के बावजूद सरकार पात्र वनवासियों को उनके अधिकारों से वंचित रखे हुए है। राज्य में 200 से अधिक वन ग्राम हैं तथा संबंधित कानून के तहत करीब 20 हजार दावे विचाराधीन पड़े हैं, लेकिन महसूस किया जा रहा है कि सरकार की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। हालांकि केंद्र ने पात्र वनवासियों को अप्रैल 2016 तक वनाधिकार कानून के दायरे में लाने के निर्देश दिए हैं, लेकिन राज्य में इसे लेकर हलचल ना के बराबर ही है।Advertisementउत्तराखंड में 200 से अधिक वन ग्रामों में राजी, थारू, बोकसा, भोटिया व जौनसारी आदि जनजातियां निवास करती हैं। लंबे समय से यह जनजातियां अपने जमीनी हकों के लिए लड़ाई लड़ रही हैं, लेकिन सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। अगर सरकार कानून के अनुसार इन गांवों को आधारभूत सुविधाओं से जोड़ दे तो ये भी राजस्व गांव में बदल सकते हैं।
प्रदेश सरकार के पास 20 हजार एकल व 500 से अधिक सामुदायिक दावे विचाराधीन पड़े हैं। अभी तक विशेष परिस्थितियों में राजाजी नेशनल पार्क के अंतर्गत केवल एक गांव में ही लोगों को इस कानून के तहत अधिकार दिए जा सके हैं। बाकी लोग वनाधिकार के लिए तरस रहे हैं। इस कानून के तहत प्रत्येक पात्र परिवार को जंगल में 4 हेक्टेयर भूमि की मिल्कियत देने के अतिरिक्त वनोपज एकत्रित करने और उसे बेचने का भी अधिकार मिलेगा।
केंद्र सरकार से यह कानून लागू करने के लिए अप्रैल 2016 की डेडलाइन मिलने के बाद प्रदेश सरकार ने अब इसके लिए समाज कल्याण विभाग को कार्यदायी एजेंसी के रूप में तैनात किया है। अपर सचिव वन विभाग एवं समाज कल्याण मनोज चंदन का कहना है कि वन क्षेत्र के लोगों को वनाधिकार कानून के बारे में जागरूक किया जा रहा है। दावों की जांच के बाद पात्र लोगों को चिन्हित किया जाएगा। लेकिन वास्तव में काम जिस सुस्ती से चल रहा है उससे नहीं लगता कि तय समय सीमा में कुछ खास प्रगति हो पाएगी।