हैदराबाद। बर्मा में जातीय हिंसा और बौद्धों के हमलों से जान बचाकर भागने वाले रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय के लगभग 300 सदस्यों ने दक्षिण भारत के शहर
हालांकि बर्मा में रोहिंग्या मुस्लिम अल्पसंख्यकों का दमन पचास वर्ष से भी ज्यादा समय से चल रहा है, क्योंकि वहां की सरकार ने इन लोगों को विदेशी बताते हुए उन्हें अपना नागरिक मानने से इंकार कर दिया है। लेकिन रोहिंग्यों का कहना है कि हालिया समय में दमन और भी तेज हो गया है, जिसमें बौद्ध बहुमत के लोग वहां की सेना और दूसरे सुरक्षाबलों की सहायता से मुस्लिम बस्तियों पर हमले कर रहे हैं, लोगों को बंदी बना रहे हैं, घरों और मस्जिदों को ध्वस्त कर रहे हैं।
हालांकि रोहिंग्या मुसलमानों का बर्मा से पलायन नया नहीं है और अब तक लाखों रोहिंग्या बंगलादेश, मलेशिया, थाईलैंड सहित कई देशों में पनाह ले चुके हैं। लेकिन यह पहली बार है कि इतनी बड़ी संख्या में यह लोग हजारों मील की यात्रा तय करके हैदराबाद पहुंचे हैं।
अबुल बासित (62) की कहानी उस दुर्दशा को प्रकट करने के लिए काफी है, जिसका रोहिंग्या लोगों को सामना करना पड़ा है। रखाइन राज्य में नोवापारा गाँव के रहने वाले अबुल बासित अपने परिवार के दस लोगों के साथ निकले थे, लेकिन लगभग दो सप्ताह तक जंगल में भूखे-प्यासे मुश्किल यात्रा के बाद जब वो बांग्लादेश और फिर भारत पहुंचे तो उनके साथ केवल दो लोग रह गए थे। उनकी दो बेटियों में से केवल एक संजीदा उनके साथ थी, जबकि दूसरी बेटी लापता हो गई है। इस हिंसा में उनकी पत्नी, दामाद और कई दूसरे लोग या तो मारे गए हैं या लापता हो गए हैं।
लम्बी सफेद दाढ़ी वाले अबुल बासित कहते हैं, ”मुझ पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा और मेरी आंख के आंसू भी सूख गए हैं। मैं रोजाना अपनी बेटी को सौ बार देखता हूं क्योंकि मुझे इसी में मेरे परिवार के सारे लोग दिखाई देते हैं। मेरी दो और बेटियां पीछे छूट गईं। मुझे उनकी सुरक्षा की चिंता खाए जा रही है।”
दुबली-पतली फरीदा खातून (65) को देखकर विश्वास नहीं होता कि वो किस तरह जंगलों और पहाड़ों में कई दिन और कई रात पैदल चलकर बर्मा से यहां तक पहुंची हैं। फरीदा खातून कहती हैं, ”मेरे चार बच्चे पीछे रह गए। बाद में मुझे मालूम हुआ कि उनमें से एक मारा गया। वहां हालत इतने खराब हंै कि हमारे बच्चे पढ़-लिख भी नहीं सकते। जिन लोगों ने पढ़-लिख लिया, उनको जेलों में डाल दिया जाता है। हमारे लिए वहां कुछ भीं नहीं है।”
इस त्रासदी का एक और चेहरा है 13 वर्षीय शब्बीर अहमद जो जातीय हिंसा में अपने मां-बाप के मारे जाने का दृश्य याद करके कांप जाता है। शब्बीर कहता है, ”वहां बौद्धों ने हमारी जमीनें छीन लीं, घर छीन लिया। अगर कोई अपने खेत में जाता भी है तो उसे मार डाला जाता है।”
इन लोगों का कहना है कि बांग्लादेश-भारत सीमा पर उन्हें किसी ने नहीं रोका, बल्कि उन्हें यह भी मालूम नहीं कि यह सीमा कहां थी, क्योंकि वो घने जंगल के रास्ते आ रहे थे।
सुरक्षा की उम्मीद में हैदराबाद आने वाले इन लोगों को निराशा नहीं हुई है, क्योंकि हैदराबाद में मुसलमान ही नहीं बल्कि सभी समुदाय के लोग उनकी सहायता के लिए आगे आए हैं।
हैदराबाद के निकट बालापुर गांव की हजरात इमाम अली शाह कादरी दरगाह उनके लिए सर छुपाने की जगह बन गई है। उसके अलावा कुछ हमदर्द लोगों ने उनके लिए कुछ घरों का भी प्रबंध किया है।
पुलिस का कहना है कि इन लोगों की स्थिति अवैध रूप से आने वाले विदेशियों की है, लेकिन जिन हालात में वो यहां आए हैं, उसके मद्देनजर उनके खिलाफ कोई करवाई नहीं की गई है। केवल उनके नाम रिकार्ड में लिखे गए हैं।
रोहिंग्या मुसलमान जान बचाने बर्मा से पहुंचे हैदराबाद
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