देहरादून। उत्तराखंड में आज जिस भी व्यक्ति से बात करें वह छला हुआ महसूस करता है। उसे लगता है कि इससे बेहतर तो उत्तर प्रदेश
देहरादून के संजय बलूनी (48) अपनी हताशा जाहिर करते हुए कहते हैं, “लगता तो ऐसा है कि उत्तराखंड में एक और आंदोलन होगा, ज़रूर होगा तभी पहाड़ के लोगों का कुछ हो सकता है वर्ना आज तो पहाड़वासियों के लिए कोई भी नहीं सोच रहा, सभी लूटने में ही लगे हुए हैं।”
संजय की मां सुशीला बलूनी अलग राज्य के आंदोलन की अग्रिम पंक्ति की नेता रही हैं। राज्य के हालात पर बात करते हुए उनके आंसू ही छलक पड़ते हैं, “क्या हमने इसी तरह के राज्य के लिए लड़ाई लड़ी थी, गोलियों और डंडों का सामना किया था और लड़कों ने क़ुर्बानी दी थी।”
लेकिन, ऐसा नहीं है कि अलग राज्य का किसी को फ़ायदा ही नहीं हुआ। उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर गोविंद सिंह कहते हैं, “नए राज्य का सबसे ज़्यादा फ़ायदा नौकरशाहों, ठेकेदारों और नेताओं ने उठाया है। दूसरी बात यह है कि प्रदेश का इतना ज़्यादा राजनीतिकरण हो गया है कि यहां हर आदमी नेता है और हर नेता मुख्यमंत्री पद का दावेदार।” वो कहते हैं कि विकास हुआ है, लेकिन राजधानी देहरादून में मॉल खुलने और अपार्टमेंट बनने को ही विकास का पैमाना नहीं कहा जा सकता है।
देहरादून ही नहीं हल्द्वानी, हरिद्वार, उधमसिंहनगर और कोटद्वार जैसे मैदानी इलाक़ों में चमक-दमक दिखती है। साक्षरता दर में उत्तराखंड का स्थान 13वां है और यहां 19 विश्वविद्यालय भी हैं, लेकिन ये सभी देहरादून और आसपास ही केंद्रित हैं। उत्तराखंड के दुर्गम भूगोल, आपदा संवेदनशीलता और जनसांख्यिक वितरण को देखते हुए गुणवत्तापूर्ण विकास को सबके लिए सुलभ बनाना एक चुनौती है। यही वजह थी कि बद्रीनाथ और केदारनाथ में अनियंत्रित निर्माण हुआ जिसकी क़ीमत 2013 में भीषण आपदा के रूप में चुकानी पड़ी।
राज्य के 14 वर्ष पूरे होने के अवसर पर मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भी स्वीकार किया कि, “उत्तराखंड में पहाड़ी राज्य का सपना हम पूरा नहीं कर पाए।” वह शायद पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने कमी की बात क़ुबूल की है। लेकिन इस स्वीकारोक्ति के बावजूद वे शायद जानते होंगे कि जवाबदेही से नहीं बचा जा सकता।
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