गुरु रविदास अथवा रैदास मध्यकाल में एक भारतीय संत थे। उन्होंने समाज में फैली जात-पात, ऊंच- नीच, छुआछूत जैसे कुरीतियों के खिलाफ प्रखरता से आवाज उठाई। इसी कारण इन्हें सतगुरु अथवा जगतगुरु की भी उपाधि दी जाती है। संत रविदास ने रैदासिया अथवा रविदासिया पंथ की स्थापना की। इनके रचे गये कुछ भजन सिख लोगों के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में भी शामिल हैं।
गुरू रविदास (रैदास) का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत् 1398 को माना जाता है। अपने जन्म को लेकर उनका एक दोहा प्रचलित है, ‘चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास, दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।’ उनके पिता संतोख दास तथा माता का नाम कलसां देवी था। उनकी पत्नी का नाम लोना देवी बताया जाता है।
रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। वे जूते बनाने का काम किया करते थे। यही उनका व्यवसाय था। संत रामानन्द के शिष्य बनकर उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया। संत रविदास जी ने स्वामी रामानंद जी को कबीर दास के कहने पर गुरु बनाया था, जबकि उनके वास्तविक आध्यात्मिक गुरु कबीर दास ही थे।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।
प्रस्तुत है संत रविदास के प्रमुख दोहे अर्थ सहित:
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन।
पूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुण प्रवीन।।
संत रविदास कहते हैं कि किसी को सिर्फ़ इसलिए नहीं पूजना चाहिए कि वह किसी पूजनीय पद पर है। यदि उस व्यक्ति में उस पद के अनुसार गुण नहीं है तो उसे नहीं पूजना चाहिए। यदि कोई ऐसा व्यक्ति है जो किसी पूजनीय पद पर तो नहीं है, पर उसमें अच्छे गुण हैं तो उसे अवश्य पूजना चाहिए।
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै॥
ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति ही जीवन में सफल रहता है। जैसे विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि लघु शरीर की चींटी इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की ।।
मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं।
रैदास कहै जाकै हदै, रहे रैन दिन राम।
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम।।
जिस हृदय में दिन-रात राम के नाम का ही वास होता है। वह हृदय स्वयं राम के समान होता है। वे कहते हैं कि राम के नाम में ही इतनी शक्ति होती है कि व्यक्ति को कभी क्रोध नहीं आता और कभी भी कामभावना का शिकार नहीं होता हैं।
रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।
संत रविदास जी कहते हैं कि कोई भी इन्सान जन्म लेने से नीच नहीं होता। इन्सान के कर्म ही होते हैं जो उसे नीच बना देते हैं। अर्थात् इन्सान के कर्म ही उसे नीच बनाते हैं।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय।।
सभी कामों को यदि हम एक साथ शुरू करते हैं तो हमें कभी उनमें सफलता नहीं मिलती। जैसे आप यदि किसी पेड़ की एक एक टहनी और पत्ती को सींचने लगें और उसकी जड़ को सूखा छोड़ दिया जाये तो वह पेड़ कभी फल नहीं दे पायेगा।
करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस।
कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास।।
मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्म करते रहना चाहिए, फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि कर्म करना मनुष्य का धर्म है तो उसका फल मिलाना सौभाग्य।
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
संत रविदास जी कहते हैं कि हमारे समाज में जातियां इस तरह व्याप्त हैं जैसे केले के तने के पात के नीचे पात। जब तक जातियां खत्म नहीं होंगी, तब तक इन्सान एक नहीं हो सकता।
मन ही पूजा मन ही धूप।
मन ही सेऊं सहज स्वरूप।।
भगवान हमेशा एक स्वच्छ और निर्मल मन में निवास करते हैं। यदि आपके मन में किसी प्रकार का बेर, लालच या द्वेष नहीं है तो आपका मन भगवान का मंदिर, दीपक और धूप के समान है। इस प्रकार के लोगों में ही भगवान हमेशा निवास करते हैं।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
भगवान एक ही हैं। राम, कृष्ण, हरी, ईश्वर, करीम और राघव उनके अलग- अलग नाम हैं। सभी वेद, कुरान और पुराण जैसे ग्रंथों में भी एक ही ईश्वर का गुणगान किया गया है। ये सभी ग्रन्थ ईश्वर भक्ति का ही पाठ सिखाते हैं।
रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय।।
मुश्किल परिस्थिति में व्यक्ति की सहायता कोई नहीं करता। उस समय उसके द्वारा कमाई गई सम्पत्ति ही उसके काम आती है। ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य भी तालाब का पानी सूख जाने पर कमल को सूखने से नहीं बचा सकता।
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस ।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।
जो लोग हीरे जैसे बहुमूल्य हरी को छोडकर दूसरी चीज़ों की आशा रखते हैं। उन लोगों को अवश्य ही नर्क में जाना पड़ता है। ईश्वर की भक्ति को छोड़कर इधर उधर भटकना बिल्कुल व्यर्थ है।
मन चंगा तो कठौती में गंगा।।
जिसका मन पवित्र होता है, उसके बुलाने पर मां गंगा भी एक कठौती आ जाती हैं। यहां पर कठौती से मतलब चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरे पात्र से है।