हिमाचल के दूरस्थ ऊपरी क्षेत्रों में आज भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हर समय- चूल्हे के पास आग सेंकते हुए, बरामदे में आराम करते हुए, जंगल में पशु चराते हुए और यहां तक कि टहलते हुए भी ऊन कातते नजर आते हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ‘स्वदेशी’ आंदोलन के दौरान देश की बड़ी आबादी को चरखे से जोड़ा और तकली से भी सूत व ऊन कातने के लिए प्रेरित किया। गांधी जी किसी सभा में जाते थे तो भी चरखा साथ रखते थे और मंच पर भी खाली समय चरखा चलाते रहते थे। वे भाषण के लिए अपनी बारी आने पर ही उठते, भाषण देते और फिर वापस चरखे के पास बैठ जाते थे। उनका संदेश यही था कि हमें हर समय कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। पता नहीं ये गांधीजी का ही प्रभाव रहा होगा या कुछ और.. हिमाचल के दूरस्थ ऊपरी क्षेत्रों में आज भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हर समय- चूल्हे के पास आग सेंकते हुए, बरामदे में आराम करते हुए, जंगल में पशु चराते हुए और यहां तक कि टहलते हुए भी ऊन कातते नजर आते हैं।
सिरमौर जिला के ‘हाटी’ समुदाय में आज भी बुजुर्ग महिलाएं एवं पुरुष हर समय अपने साथ करंडी में ऊन रखते हैं और जैसे ही समय मिलता है, वे तकली निकाल के ऊन कातना आरम्भ कर देते हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे आजकल महिलाएं कहीं भी स्वैटर बुनना शुरू कर देती हैं।
ऊन कातने की तकली दो तरह की होती हैं। एक छोटे आकार दी, जिसे जमीन पर टिका कर घुमाते हुए ऊन काती जाती है। दूसरी बड़े आकार की होती है, कुछ जगह इसे तकला भी कहा जाता है। इसे खड़े- खड़े ही घुमाकर हवा में छोड़ दिया जाता है और ऊन से धागा बनाया जाता है। जंगल में पशु चराते समय या यूं ही टहलते हुए ऊन कातने के लिए इसी तकले का इस्तेमाल किया जाता है। कुछ दशक पूर्व तक यह लगभग सभी ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में देखने को मिलता था, लेकिन अब यह कुछ ही क्षेत्रों, विशेषकर जनजातीय क्षेत्रों में देखा जाता है।
जैसा कपड़ा बनाया जाना हो, ऊन की कताई उसी के हिसाब से मोटी या महीन की जाती है। कताई के बाद ऊन के डिम्बले (गोले) बनाये जाते हैं। फिर पहरावे के हिसाब से बुनाई की जाती थी। पट्टू बनाना है या पट्टी बनानी है। नमदा बनाना है या पाखी। लोईया बनाना है या सूथन। कोट बनाना है या कोटी। टोपी बनानी है कि झगटू। कमीज बनानी है या पाजामा। यहां तक कि जूते भी…। फिर जो बनाना है उसे ऊन के ही धागे से सिला जाता है। ऊन का पहरावा बहुत गर्म होता है। जनजातीय क्षेत्रों में, जहां सर्दियों में बहुत अधिक ठंड पड़ती है, वहां ऊन के यह वस्त्र ही लोगों के मुख्य रक्षा कवच हैं।