…सियासत के इस घिनौने खेल का अंत उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद भी शायद ही ख़त्म हो। चुनाव के बाद जिसके भी हाथ सत्ता आएगी, वह इसकी जांच का खेल चालू कर देगा। और फिर कौन दोषी- कौन नहीं, किसको बचाएं- किसको फंसाएं… का खेल शुरू होगा। हमेशा यही होता आया है।
उत्तर प्रदेश चुनाव में यूं तो 6 माह से अधिक का समय है, लेकिन राजनैतिक दलों ने अभी से चुनावी बिसात बिछानी शुरू कर दी है। मथुरा के बाद कैराना और अब देवबंद को भी राजनीति के खतरनाक रंग में रंगने का प्रयास किया जा रहा है। ये तीनों ही क्षेत्र खूनी खेल के लिए राजनैतिक दलों के पसंदीदा क्षेत्र रहे हैं। पिछले कई चुनाव इन्हीं क्षेत्रों में खून की खेती के बल पर इन दलों ने जीते -हारे हैं। अब चुनाव से पूर्व उन्होंने फिर से इन क्षेत्रों को गरमाना शुरू कर दिया है। चुनाव पूर्व इन दलों को बैठे बिठाए मथुरा का मुद्दा तो मिल ही गया था। इससे पूर्व कैराना की ज़मीन भी इन दलों के नेताओं के जरिये तैयार की जा रही थी, जो अब पूरी तरह से इनके मनमाफिक चुनाव में मुद्दा बनने को तैयार हो चुकी है।
देवबंद तो पहले से ही इन नेताओं की साजिश का केंद्र रहा है। इस रक्त रंजित खेल में मथुरा में 2 पुलिस अधिकारी समेत 32 लोग अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं। सियासत के इस घिनौने खेल का अंत उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद भी शायद ही ख़त्म हो। चुनाव के बाद जिसके भी हाथ सत्ता आएगी, वह इसकी जांच का खेल चालू कर देगा। और फिर कौन दोषी- कौन नहीं, किसको बचाएं- किसको फंसाए… का खेल शुरू होगा। हमेशा यही होता आया है।
कब तक जनता इन नेताओं के खेल का मोहरा बनती रहेगी? अभी मथुरा की आग बुझ भी नहीं पायी थी कि कैराना में इन दलों ने एक नया खौफ खड़ा कर दिया। काम को सही अंजाम देने के बजाये जनता में खौफ पैदा किया जा रहा है। खौफ में भी जातीय और धर्म के साथ रक्त की वही पुरानी खेती का प्रयास किया जा रहा है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अकसर अपनी चुनावी सभा में एक जुमला- “नयी बोतल में पुरानी शराब” प्रयोग किया करते थे। चुनाव में जाति- धर्म के साथ नफरत के बीज बोने का ये राजनैतिक दलों का खेल काफी पुराना हो चुका है। कई सरकारें इन मुद्दों के जरिये सत्ता की सीढ़ी चढ़ी उतरी हैं। लिहाज़ा राजनैतिक दल बिना खौफ ये खौफ का खेल खेलते जा रहे हैं।
कैराना में कोई पलायनकर्ताओं की लिस्ट जारी कर रहा है तो कोई उसे फ़र्ज़ी बता रहा है। इनके इस खेल में रोजगार के लिए पलायन करने वाले भी परेशान हैं। उनके दर्द को कुरेदा जा रहा है। मीडिया, टीवी चैनल वाले अपना-अपना एंगल देख रहे हैं। मैं सही गलत की बहस में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन एक बात सर्वविदित है कि अपना घर कोई आसानी से नहीं छोड़ता। पलायन की यह पीड़ा बीते 70 साल से पूरे भारतीय उप महाद्वीप की है। आज भी पाकिस्तान से आये बुजुर्गों से बात करो तो उनकी डबडबाई आँखें 70 साल पुराना दर्द बयां करने लगती हैं। पलायन हिन्दू -मुसलमान का साझा दर्द है। कश्मीर में सब कुछ गंवाने वालों का मन आज भी दिल्ली एनसीआर में नहीं लगता। अब हम लोगों को ये समझना चाहिए की धीरे -धीरे मिश्रित आबादी ख़त्म हो रही है। मेरठ, मुरादाबाद, गाज़ियाबाद , मुजफ्फरनगर में अब मिश्रित आबादी वाले मोहल्ले नहीं रहे। अब ये नेताओं को सोचना होगा कि यह खायी कहां तक जायेगी। चुनाव तो हर 5 वर्ष में आएंगे- जाएंगे। सत्ता का यह भयावह खेल आखिर कब बंद होगा? मेरी ये व्यक्तिगत गुजारिश है सभी राजनैतिक दलों से कि लोगों की ज़िन्दगी का इतना घिनौना खेल अब बंद करो?