शिमला। हिमाचल प्रदेश में इस बार रिकार्ड 75 प्रतिशत मतदान हुआ, जिसके राजनीतिक गलियारों में कई तरह के अर्थ निकाले जा रहे हैं। कुछ क्षेत्रों में तो 90 प्रतिशत तक मतदान हुआ है। कई जगह भाजपा व कांग्रेस कार्यकर्ताओं के मध्य तीखी झड़पें, तोड़फोड़ और गाड़ियां फूंकने की घटनाएं हुईं, कुछ क्षेत्रों में VVPAT मशीनों में मामूली खराबी का खबरें भी आईं, लेकिन कुल मिलाकर चुनाव बिना किसी विघ्न के संपन्न हो गए।
मूल प्रश्न, जो राजनीतिक विद्वानों को मथ रहा है, वही कि भारी मतदान को किस अर्थ में लिया जाए? आम धारणा रही है कि भारी मतदान सत्ता विरोधी रुझान को दर्शाता है। लेकिन यह धारणा हर जगह सही साबित नहीं हुई है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के 34 वर्ष के शासनकाल के दौरान हर चुनाव में पहले से अधिक मतदान होता रहा, लेकिन नतीजे सत्ता के पक्ष में आते रहे। देश में इसी तरह के कई और भी उदाहरण हैं, जो इस धारणा की पुष्टि नहीं करते।
उल्लेखनीय है कि प्रदेश में पिछले कुछ दशकों से कांग्रेस और भाजपा बारी- बारी से सत्ता पर काबिज होती रही है। अकसर इस बदलाव के लिए इन दोनों ही दलों के नेता व कार्यकर्ता भी मानसिक रूप से तैयार रहते हैं। ..तो क्या इस बार भाजपा अपनी बारी संभालेगी? यदि कांग्रेस सरकार रिपीट करती है तो यह प्रदेश की राजनीति में बहुत बड़ी घटना होगी।
चुनाव प्रचार में इस बार स्पष्ट रूप से भाजपा का पलड़ा भारी रहा है। विज्ञापनों, बैनरों से लेकर राष्ट्रीय नेताओं की रैलियों तक में भाजपा मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस से काफी आगे रही, जबकि कांग्रेस के खेमे में धन व संसाधनों की कमी का रोना- धोना होता रहा। निवर्तमान मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने एक राष्ट्रीय चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा- “प्रचार के लिए धन की कमी है। हम कोई इंडस्ट्रीलिस्ट तो हैं नहीं, पार्टी कार्यकर्ता थोड़ा बहुत जो चंदा जुटा पाते हैं, उसी से काम कर रहे हैं।”
कुछ बातें कांग्रेस के पक्ष में भी हैं। वीरभद्र सिंह अंतिम चुनाव लड़ने की दुहाई देकर वोट मांग रहे थे। इस बार मोदी सरकार ने CBI और ED के माध्यम से वीरभद्र सिंह को बहुत परेशान किया। यहां तक कि उनकी बेटी के विवाह के दिन घर में CBI का छापा डाला गया, लेकिन कोई भी सबूत हाथ नहीं आया। वीरभद्र सिंह और कांग्रेस ने चुनाव में इसे खूब भुनाया है। इसके अतिरिक्त कांग्रेस हाई कमान पहली बार वीरभद्र सिंह के साथ चट्टान की तरह खड़ा नजर आया, जिसमें उनके दलगत विरोधियों मुंहकी खानी पड़ी।
भाजपा ने प्रो. प्रेम कुमार धूमल को काफी बाद में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया। हाईकमान पहले अहंकार में था कि मोदी लहर से ही चुनाव जीतेंगे, मर्जी से टिकट देंगे और मर्जी का मुख्यमंत्री बनाएंगे। हाईकमान ने मर्जी से टिकट बांटे और बहुतों को रुलाया। प्रदेश के स्थापित नेताओं को कोई भाव नहीं दिया। इसके चलते बड़े नेताओं ने जब अपने- अपने विधानसभा क्षेत्रों में ही सिमटना शुरू कर दिया और मोदी लहर भी जमीन पर कहीं दिखती नहीं लगी तो हाईकमान के हाथ- पैर फूल गए। ऐसे में डैमेज कंट्रोल के लिए धूमल को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करना पडा। लेकिन तब तक काफी नुकसान हो चुका था और कांग्रेस जो अभी तक काफी पिछड़ी हुई थी, मुकाबले में आ गई। जहां तक भितरघात की बात है, वह जितनी कांग्रेस में उससे अधिक भाजपा में है।
तो क्या रिकार्ड मतदान जीत के प्रति आश्वस्त भाजपा कार्यकर्ताओं के उत्साह का नतीजा है या फिर मोदी सरकार के अहंकार के प्रति जनता का आक्रोश? उम्मीद है आने वाले कुछ दिनों में इन प्रश्नों के जवाब स्पष्ट सुनाई पड़ने लगेंगे।