अपनी जापान यात्रा के दौरान मुझे ताइतुंग (चीन) की गौरव कही जाने वाली कुजड़िन चेन शु- चु का परिचय मिला, जिसने सब्जी बेचकर पाँच करोड़ रुपये से अधिक की राशि विभिन्न सामाजिक कार्यों में दान की थी। उसके जीवन के तीन मूल मंत्र थे-
- सिर्फ जरूरत की चीज़ें ही खरीदो, इससे बहुत पैसा बचेगा।
- उधार लिया धन लौटाना आसान है, मगर किसी के अहसान लौटाना कठिन है।
- जिस काम को करते समय आप चिन्तित हों, वह जरूर गलत काम है। जो काम करने से आपको खुशी मिले, वह अच्छा होगा। दूसरे क्या कहते हैं यह बात महत्वपूर्ण नहीं है।
हिन्दी की जुझारू साहित्य साधिका आशा शैली को जब भी सामने देखता हूं तो मुझे चीन की चेन शु– चु का स्मरण
हो आता है। दोनों में कितना साम्य है? दोनों के जीवन के मूलमंत्र भी आश्चर्यजनक रूप से समान हैं, फ़र्क सिर्फ इतना है कि वह चीन में सब्ज़ी बेचकर रोज़—रोज़ कमाती थी और यह भारत में पत्रिका (शैलसूत्र) बेचकर रोज़– रोज़ गंवाती हैं। हमारा समाज अब आर्थिक दृष्टि से उतना दरिद्र नहीं रह गया है। बेहद गरीब तबके को छोड़ दें तो प्रायः सभी परिवार भोजन– वस्त्र के मामले में पहले से बहुत खुशहाल हो गए हैं। हिन्दी जाति का समाज भी समृद्ध हुआ है, मगर हिन्दी समाज एक मामले में उत्तरोत्तर दरिद्र होता जा रहा है और वह है पुस्तकों का मामला। एक ओर जहां इस समाज में सृजनात्मक कलमों की संख्या पहले से बहुत बढ़ी है, वहीं उन कलमों को मान देने वाले घटे हैं। आज हिन्दी में साहित्यिक पत्र– पत्रिकाएं काफी तादाद में छप रही हैं, पुस्तकें भी खूब प्रकाशित हो रही हैं मगर उन्हें खरीद कर पढ़ने वाले घटे हैं।
टीवी, फिल्म, क्रिकेट के त्रिशूल ने समाज के मध्य वर्ग के जीवन से वे सारस्वत क्षण छीन लिए हैं जो उन्हें चैन से जीने की मोहलत देते थे। आशा शैली जैसे लोग यहीं आकर हार जाते हैं, क्योंकि जो लोग अपने बच्चों के लिए डेढ़ सौ रुपये का बर्गर—पिज़्ज़ा खरीद सकते हैं वे हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका के लिए 15 रुपये नहीं निकाल पाते। फिर भी 73 साल की उम्र में एक लेखिका यदि अपने लेखन के अलावा पत्रिका निकाल कर द्वार– द्वार भटकती है तो सिर्फ इसलिए कि आने वाली पीढ़ी साहित्यिक अनुपलब्धता के कारण अपना विवेक और अपने संस्कार न खो दे।
रूसी लेखक लियो तोल्सतोय का कहना था कि लेखक को युद्ध और कैद का अनुभव होना किसी भी चीज़ से अधिक आवश्यक है। इसीलिए वे 1851 में स्वेच्छा से सेना में भर्ती भी हुए और कमीशन न मिलने पर सैनिक प्रशिक्षण के लिए आवश्यक सभी चीज़ें उन्हें स्वयं जुटानी पड़ी थीं। वे काकेशिया में रहे और चेचन्या के युद्धों में हिस्सा लिया। अपने उस अनुभव का इस्तेमाल उन्होंने अपने वृहद् उपन्यास ‘युद्ध और शान्ति’ में किया। आशा जी भी ‘वन वीमेन आर्मी’ हैं, एक सदस्यीय सेना। कोई आगे नहीं, कोई पीछे नहीं। बिना किसी बाहरी सहायता के पूरी तरह शस्त्र– सज्ज। वह जो काम भाषा– साहित्य के क्षेत्र में आज कर रही हैं वह किसी अघोषित युद्ध से कम नहीं। एक ओर पर्वतीय जीवन के यथार्थ को ‘छाया देवदार की’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से वृहत् हिन्दी समाज के सामने रख रही हैं तो दूसरी ओर ‘एक और द्रौपदी’ जैसे काव्य– संग्रहों से हिन्दी कविता में वास्तविक स्त्री– विमर्श की खाद डाल रही हैं। उनके हाथ में जो कलम है वह किसी एके– 47 से कम नहीं। लालकुआं जैसी छोटी जगह रहना उनकी आर्थिक मजबूरी भी है और धरती से जुड़े जीवन को संभालने की ललक भी। वे अपनी रचनाओं के साथ जिस कस्बे में रहती हैं वहां लोग उन्हें किस रूप में देखते हैं मुझे पता नहीं। उनके आस– पास के लोग कुमाऊँ के ऊँचे पहाड़ों से आकर बसे हैं और कृषि और पशुपालन पर आधारित हैं, अधिकतर फौजी भी हैं। उनकी नज़र में आशा जी एकाकी जीवन जीने वाली, दिन भर पढ़ने– लिखने वाली दीदी हैं।
याद आती है, 1993 की जून महीने की वह भयंकर गर्मी, जिसमें तपते हुए मैं कलकत्ता से शिमला गया था, आकाशवाणी के एक कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करने। ठहरने की व्यवस्था हिमाचल भाषा विभाग के चार कमरों वाले अतिथिगृह ‘संस्कृति सदन’ में थी। आकाशवाणी केंद्र पहुँचकर मालूम हुआ कि अपरिहार्य कारणों से कवि सम्मेलन एक सप्ताह के लिए टल गया है। कलकत्ता इतना समीप नहीं था कि मैं जाकर लौट पाता। इसलिए कुल्लू– मनाली जाने का मन बना रहा था कि उसी अतिथिगृह के एक कमरे में किसी लोकगायिका के साथ ठहरी आशा जी मिल गईं। उन्होंने ही दरवाजा खटखटाया था। अपना परिचय दिया, ‘मैं हिमाचल प्रदेश में ही रामपुर बुशहर के पास गौरा गाँव में रहती हूँ और घर के काम– काज एवं छोटी– मोटी समाजसेवा के बाद बचे समय में लिखती– पढ़ती हूँ।’ मेरा परिचय एवं समस्या को जब जाना तब उनका ही प्रस्ताव था कि कुल्लू– मनाली तो पैसे वाले जाते ही हैं। आप तो संवेदनशील कवि हैं, आपको हिमाचल के गाँव में जाकर दो– चार दिन रहना चाहिए। किसी अपरिचित पुरुष को किसी स्त्री द्वारा इस प्रकार घर आमन्त्रित करना साहित्य– जगत में ही सम्भव हो सकता है। मैं चल पड़ा बस से उनके गाँव गौरा की ओर। उस दिन यदि मैं हिमाचल प्रदेश के रामपुर बुशहर और सराहन की यात्रा न करता और गौरा गाँव में चार दिन न बिताता तो उस देवपुत्र पर्वतीय समाज की तमाम विशेषताओं को जानने से वंचित रह जाता।
हिमालय के दुर्गम क्षेत्र में बसे किन्नर जाति के लोगों को यक्ष– गन्धर्व के समकक्ष देवयोनि में रखा गया है। पुराणों में उन्हें दैवी गायक कहा गया है। इनका निवास– स्थान किन्नौर (हिमाचल का सीमावर्ती जिला) है, जो पूर्व में तिब्बत, दक्षिण में उत्तरकाशी, दक्षिण– पश्चिम में शिमला जिला और उत्तर– पूर्व में कुल्लू व लाहुल– स्पिति की सीमा से मिलता है। पर्वतों की चोटियाँ पूरे साल हिमाच्छादित रहती हैं। इन शिखरों पर वर्षा नहीं होती हिमपात ही होता है। प्रत्येक गाँव स्वतंत्र सांस्कृतिक इकाई है और इनके अपने लोकोत्सव एवं लोक देवता हैं। कथा कहना, नृत्य करना, गीत गाना, पहेलियाँ बुझाना और मेलों में भाग लेना प्रत्येक किन्नर का सामाजिक कर्तव्य है। यहाँ लामाओं को भगवान बुद्ध का अवतार माना जाता है। अधिकतर गाँव सतलुज, व्यास, रावी, स्पिति और वस्पा नदियों के किनारे बसे हैं। खेती करना और भेड़– बकरी पालना इनके मुख्य व्यवसाय हैं। किसी समय यहाँ बहुपति प्रथा प्रमुख थी, जो पुराने लोगों में आज भी कहीं– कहीं नज़र आ जाती है। यह प्रथा परिवार को एकसूत्र में बाँधने के लिए बनी थी, परन्तु आज का समाज उससे विमुख होता जा रहा है।
बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि आशा जी उस गाँव की मूल निवासी नहीं हैं। उनके जीवन की कहानी रोचक भी है और दुखद भी। उनका जन्म 2 अगस्त 1942 को रावलपिण्डी के निकट एक छोटे से गाँव में हुआ था। जब वे पाँच वर्ष की थीं, तब उनका परिवार तीर्थयात्रा के लिए हरिद्वार आया हुआ था। उसी दौरान देश का विभाजन हुआ और हिन्दू- मुसलमान रक्त से भाई- भाई होते हुए भी एक- दूसरे के खून के प्यासे हो गए। इनका परिवार भी रावलपिण्डी के अपनों से बिछड़कर जगाधरी में शरणागत रहा। उसके बाद इनके पिता ‘बिशेशर नाथ ढल’ को कुमाऊँ के तराई में थोड़ी सी ज़मीन मिल गई और ये लोग हल्द्वानी आकर रहने लगे। वहीं इनकी शिक्षा पहले प्राथमिक पाठशाला बरेली रोड के सरकारी स्कूल में और बाद में ललित महिला विद्यालय में हुई। लिखने की प्रवृत्ति उन्हीं दिनों पनपने लगी, परन्तु लिखने की स्वतंत्रता न होने से ये अपने माता- पिता से छिपाकर लिखने लगीं। सन् 1956 में आशा का विवाह मोहन लाल जी से हुआ। वे हिमाचल के लोक निर्माण विभाग में कार्यरत थे। वे बहुत ही उघमी थे और इनके लेखन को प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने 1959 में गौरा गाँव में कुछ ज़मीन खरीद कर सेब का बाग लगाया। वे दिन आशा जी के लिए सुनहरे दिन थे। बाग में सेब, प्लम, खुबानी, नाशपाती, चेरी, बादाम आदि इतने अधिक फलते थे कि दोनों बाँटते—बाँटते परेशान हो जाते। जमकर उनका जैम और स्क्वैश बनाकर बेचा जाता। पति ने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूर्णतया खेती को आधार बना लिया, जो बहुत सुखद रहा। खुशी के इन्हीं दिनों में आशा जी के दो पुत्र और एक पुत्री हुर्ई। उस ग्रामीण परिवेश में बच्चों की पढ़ाई जहाँ तक हो सकती थी हुई। सन् 1982 में मोहनलाल जी का सड़क दुघर्टना में अक्समात् निधन हो गया। आशा जी पर जैसे विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। एक के बाद एक त्रासदी झेलती हुई आशा जी ने वह दिन भी देखा जब बड़े बेटे ने पत्नी के उकसाने पर गाँव छोड़कर रामपुर बुशहर में घर बना लिया। ऐसे समय में बेटी माँ के लिए बहुत बड़ा सहारा होती है। वह थी भी, मगर 1992 में एक दिन वह भी सर्पदंश के कारण चल बसी।
मैं जब 1993 में आशा जी के गाँव गया तब उनका छोटा बेटा घर में रहता था। बहू पास के आंगनबाड़ी स्कूल में पढ़ाती थी। उसका एक बेटा था, जो उसके साथ ही जाता था। एक दिन वह मुझे भी स्कूल ले गई, मैंने उन छोटे बच्चों के साथ बहुत मौज की। एक दिन सुबह- सुबह आशा जी के साथ बस में सराहन भी गया, जहाँ देवी का मन्दिर है। यह सिद्धपीठ है। अब तो बस गौरा से भी चलती है, मगर उन दिनों गौरा से 16 किमी नीचे रामपुर जाना पड़ता था। वह मन्दिर भूतपूर्व राजा वीरभद्र सिंह की (जो कई बार हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे हैं) पारिवारिक सम्पत्ति है, जो उन्होंने ट्रस्ट के नाम कर दी है। मन्दिर की मुख्य प्रतिमा तंत्र की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसे सार्वजनिक नहीं किया जाता। जनता चौथे तल पर स्थापित स्वर्ण प्रतिमा के ही दर्शन करती है। मन्दिर परिसर में एक अतिथिगृह भी है, जिसका संचालन भाषा अधिकारी करता है। आशा जी की फुर्ती मेरे लिए आश्चर्यजनक थी। सराहन जाने से पहले ही मेरे तैयार होने तक उन्होंने नाश्ता बनाकर पैक कर लिया था। कपड़े की पैकिंग ऐसी कि उस ठंड में भी घण्टों बाद वह गर्म था। मैंने उनके व्यक्तित्व में पारिवारिक और साहित्यिक गुणों का अद्भुत संगम देखा, जो बहुत दुर्लभ है। जब वे गृहिणी नहीं होती थीं, तब अन्तहीन साहित्यिक चर्चा करती थीं। गाँव के बाहर एक समतल चट्टान थी, जिस पर बैठकर हम दोनों हर शाम अपनी कविताओं का विनिमय करते थे। जिस दिन मैं लौटा, वे रामपुर बुशहर तक मुझे छोड़ने आई थीं। मुझे लगा ही नहीं कि उनसे मेरी मुलाकात अभी- अभी हुई थी। उदास मन लिए मैं शिमला लौट आया और वे भी अपने घर लौट गईं। उसके लगभग दो मास बाद अपने मित्र और दूरदर्शन के निदेशक घनश्याम शर्मा के निमंत्रण पर मैं गया तो वे भी गोरखपुर आई थीं। वहीं उनसे भेंट हुई, जो बहुत ही संक्षिप्त थी। आशा जी के साथ बराबर भेंट हो और मेरे अन्य साहित्यिक मित्र भी गौरा के नैसर्गिक दृश्यों का आनन्द ले सकें, इसलिए प्रतिवर्ष रामपुर बुशहर में अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मेलन की योजना भी बनी, जिसे आशा जी ने तीन- चार वर्ष कार्यान्वित भी किया, किन्तु सरकारी नौकरी में फंसे होने के कारण मैं ही न जा सका।
जब मैं देहरादून आया तब एक दिन अचानक आशा जी एक महिला के साथ वर्षा में भीगती हुई मेरे घर पहुँचीं। तब तक वे गृहिणी से खानाबदोश हो चुकी थीं। छोटे बेटे ने घर में ऐसा उत्पात मचाया कि उन्हें अपने पति के श्रम से अर्जित डीह और अपने श्रम से पले- बढ़े बागीचे को त्याग कर शिमला के ‘वर्किंग वीमेन हॉस्टल’ में शरण लेनी पड़ी। बेटी के निधन के बाद वे परवाणु अपने भाई के मकान में रहीं, वहाँ से खतौली और डेढ़ साल तक हरिद्वार—ऋषिकेश के आश्रमों में रहने के लिए चक्कर काटने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि ये साधुवेष धारी अर्थ लोलुप व्यापारी उनसे गाँव की जमीन बिकवा कर पैसा भी ऐंठ लेंगे और बर्तन भी मंजवाएँगे। तब उन्होंने यह विचार छोड़ दिया। सन् 2001 में वह सितारगंज अपने भाई के आ गईं। सन् 2007 में वे लालकुआँ आ गईं, यह हल्द्वानी से लगभग 15 किमी दूर है। यहाँ से उतना ही दूर पंतनगर विश्विद्यालय भी है। यहाँ भी कई घर बदलने के बाद अब वे मन के अनुकूल घर पा गई हैं, जिसमें वे स्वतंत्रता पूर्वक एक सम्पूर्ण साहित्यकार के रूप में रहती हैं। अपने लेखन के अलावा कम्प्यूटर पर नवोदित रचनाकारों की पुस्तकें भी अल्प पारिश्रमिक लेकर कम्पोज़ करती हैं। दौड़- भागकर आइएसबीएन नं. भी आबंटित करा लिया है और आरती प्रकाशन चला रही है, जिसके अंतर्गत उनकी काँटों का नीड़ (कविता संग्रह), शजरे तन्हा (ग़ज़ल संग्रह), पीर पर्वत (गीत संग्रह) छपे हैं। किताब घर से प्रकाशित ‘हिमाचल बोलता है’ बहुत चर्चित हुई। बच्चों के लिए ‘दादी कहो कहानी’ और ‘सूरज चाचा’ साहित्य भण्डार इलाहाबाद से प्रकाशित हुई हैं। इसके अलावा ‘शैलसूत्र’ त्रैमासिक की तलवार तो इनके सिर पर हमेशा लटकी ही रहती है। इन्होंने प्रयास किया कि सरकारी विभागों से कुछ विज्ञापन मिल जायें तो आर्थिक चिंता से मुक्ति मिल जाए। मगर वहाँ इनसे कहा गया कि पूजा के तौर पर……तो भ्रष्टाचार की सड़ांध से यह नाक दबाकर भाग निकलीं।
मैं हृदय से चाहता था कि आशा जी पर एक विशेषांक निकले, जिससे इस जुझारू रचनाकार के बारे में देश के साहित्यप्रेमी अवगत हों। मैंने कई बार इनसे आग्रह भी किया मगर ये एक कान से सुनतीं और दूसरे से निकाल देतीं। एक बार इस पत्रिका के संरक्षक की हैसियत से जब मैंने घोषणा कर दी कि ‘शैलसूत्र’ का अगला अंक आशा जी पर केंद्रित होगा तब ये विवश हो गईं और यह विशेषांक आपके सामने है। इसके लिए मैं समय निकालकर लालकुआँ गया और बिन्दुखत्ता में ‘औरतों वाली दूध की डेरी’ (महिला दुग्ध संग्रह केंद्र) के ऊपर इनके स्वतंत्र आवास में इनके आतिथ्य का सुख पाते हुए विशेषांक की सामग्री का चयन किया। मैं आशाजी के प्रति उस सहज आतिथ्य के लिए आभारी हूँ। जिन रचनाकारों ने इस यज्ञ में आहुति दी है उनको धन्यवाद देना अप्रासंगिक है, क्योंकि आशा जी उनका भी साँझा चूल्हा हैं।
लेखक का पता- देउधा हाउस, 2/5, मन्दिर लेन, देहरादून
मो.9412992244