देहरादून। उत्तराखंड को कांग्रेस और भाजपा ने पिछले 15 वर्षों में ना केवल आर्थिक भ्रष्टाचार से बल्कि राजनीतिक भ्रष्टाचार से भी पस्त कर दिया है। यहां एक- दूसरे की पार्टियां तोड़कर कराया जा रहा दलबदल इस राजनीतिक भ्रष्टाचार का ही नमूना है। नेताओं के अवसरवाद ने उत्तराखंड को ‘मुख्यमंत्री उत्पादक राज्य’ बनाकर रख दिया है। बीते 15 वर्षों में राज्य में 10 मुख्यमंत्री हो गए हैं और दो बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। इसी राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण यहां वर्तमान में 12 विधानसभा क्षेत्र प्रतिनिधि विहीन हैं।
उत्तरप्रदेश से कटकर अलग राज्य बनने के बाद से ही उत्तराखंड में सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, हित माफिया ताकतों का ही सधता रहा है। जमीन, खनन, शराब आदि माफियाओं की पौ बारह है। सरकारी उपेक्षा के चलते रोजगार के लिए बढ़ते पलायन से पहाड़ खाली हो रहे हैं। चार हजार के करीब गांव खंडहर में तब्दील हो चुके हैं।
पर्वतीय क्षेत्रों से जिस तरह से पलायन की गति तेज हुई है, वह राज्य में लागू कुनीतियों की वजह से है। पहाड़ में खेती की उपेक्षा, उसमें निवेश का अभाव, उत्पादों के समर्थन मूल्य और क्रय केंद्रों का अभाव जैसे तमाम कारकों ने लोगों को खेती से विमुख होकर पलायन के लिए विवश किया है। बदहाल शिक्षा व्यवस्था और पूरी तरह चरमराई हुई स्वास्थ्य व्यवस्था ने भी लोगों का जीना मुहाल कर रखा है।
वर्तमान हरीश रावत पूरी तरह से अलोकतांत्रिक कार्यप्रणाली अपनाए हुए है। राज्य से जुड़े प्रमुख सवालों पर स्थानीय राजनीतिक दलों के साथ काम करने की संस्कृति यहां विकसित नहीं की गई है। हाल ही में राज्य सरकार द्वारा विधानसभा में पारित पंचायती राज अधिनियम राज्य सरकार की अलोकतांत्रिक कार्यप्रणाली का ही नमूना है। जिस तरह से चुनाव लड़ने के लिए शौचालय को शर्त बनाया गया है, वह गरीबों को पंचायत चुनाव लड़ने से वंचित करने का एक षड्यंत्र है। शौचालय होने से पहले यह जरूरी है कि लोगों के पास घर हो। महिलाओं के नाम पर चूंकि कोई संपत्ति नहीं है, तो इस तरह महिलाओं के एक बड़े हिस्से को भी यह शर्त चुनाव लड़ने से वंचित कर देगी। पहाड़ में 500 की जनसंख्या पर ग्राम सभा बनाने की शर्त कई ग्राम सभाओं का अस्तित्व ही मिटा देगी। इसी तरह के अन्य भी कई मामले हैं, जिसमें हरीश रावत सरकार हरियाणा और राजस्थान आदि भाजपाई सरकारों के नक्शे कदम पर चल रही है।
कांग्रेस- भाजपा सरकारों ने कृषि भूमि हड़प कर उन पर जो सिडकुलों (State Industrial Development Corporation of Uttrakhand Limited के तहत लगने वाले उद्योगों) की स्थापना की है, उनमें स्थानीय बेरोजगारों को 70 प्रतिशत रोजगार देने के शासनादेश को ठेंगा ही दिखाया गया है। ये सिडकुल श्रम कानूनों की कब्रगाह बने हुए हैं, जहां मजदूरों और मजदूर नेताओं पर कातिलाना हमले हो रहे हैं। हाल ही में अतिथि शिक्षक और बीपीएड प्रशिक्षित न्याय मांगने सड़कों पर उतरे तो उन पर बरबरता पूर्वक लाठीचार्ज किया गया। राज्य में अनुसूचित जाति के बैकलॉग के 48 हजार पदों को जानबूझ कर नहीं भरा जा रहा है, जिस कारण दलित समुदाय में भारी रोष है।
उत्तराखंड में इस पतित राजनीतिक संस्कृति को बदलने के उद्देश्य से तीन वामपंथी पार्टियों- सीपीआई (एम), सीपीआई, सीपीआई (माले) की संयुक्त बैठक देहरादून में हुई, जिसमें निर्णय लिया गया कि तीनों पार्टियां विधानसभा का चुनाव संयुक्त रूप से चुनाव लड़ेंगी और पूरे अभियान को भी संयुक्त रूप से ही चलाया जाएगा। निर्णय लिया गया कि वामपंथी पार्टियां राज्य में 25 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी तथा शेष सीटों पर उन लोकतांत्रिक ताकतों का समर्थन करेंगी जो कांग्रेस- भाजपा की नीतियों के खिलाफ मजबूती से संघर्ष में नजर आएंगी।