नई दिल्ली। अभी हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने तमाम संगठनों से कहा कि वे मोदी सरकार के गलत कार्यों का विरोध करने में संकोच न करें और जहां जरूरी समझें वहां विरोध और आन्दोलन भी करें। दरअसल संघ परिवार को जनता के टूटते धीरज और बढ़ते असन्तोष का अहसास होने लगा है और वह पहले से ही इसकी पेशबन्दी करने की जुगत में जुट गया है।
पिछले साढ़े तीन साल से जनता को सिर्फ जुमलों की अफीम चटायी जा रही थी और देश की एक अच्छी-खासी आबादी इस उम्मीद में सारी परेशानियां झेल रही थी कि मोदी सरकार के दिखाये सपनों में से कुछ तो पूरे होंगे। मगर अब जिन्दगी की बढ़ती तकलीफें और एक-एक करके टूटते सारे वादे बर्दाश्त की हदों को पार करने लगे हैं। ‘बहुत हुई महंगाई की मार’ कहकर सत्ता में आयी मोदी सरकार ने लोगों पर महंगाई का पहाड़ लाद दिया है। खाने-पीने की चीजों, दवाओं, शिक्षा, किराया-भाड़ा, गैस, डीज़ल,,पेट्रोल सबकी कीमतें बुलेट ट्रेन की रफ्तार से लगातार बढ़ती जा रही हैं। रोजगार बढ़ने के बजाय घट रहा है। भ्रष्टाचार, अपराध, गन्दगी किसी चीज में कमी नहीं आयी है।
हमने मोदी की जीत के बाद जो भविष्यवाणी की थी वह अक्षरश: सही साबित हो रही है। विदेशों में जमा काला धन की एक पाई भी वापस नहीं आयी है। देश के हर नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये आना तो दूर, फूटीकौड़ी भी नहीं आई। नोटबन्दी से काला धन कम होने के बजाय उसका एक हिस्सा सफेद हो गया और आम लोगों की ईमान की कमाई लुट गयी। निजीकरण की अन्धाधुन्ध मुहिम में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को हड़पकर देशी-विदेशी कम्पनियां जमकर छंटनी कर रही हैं। न केवल ब्लू कॉलर नौकरियों बल्कि व्हाइट कॉलर नौकरियों में भी अभूतपूर्व कटौती हो रही है। बेरोजगारी की दर नयी ऊंचाइयों पर है और छात्रों-युवाओं के आन्दोलन जगह-जगह फूट रहे हैं। मोदी के “श्रम सुधारों” के परिणामस्वरूप मजदूरों के रहे-सहे अधिकार भी छिन चुके हैं, असंगठित मजदूरों के अनुपात में और बढ़ोत्तरी हुई है, बारह-चौदह घण्टे सपरिवार खटने के बावजूद मज़दूर परिवारों का जीना मुहाल है।
जल, जंगल, ज़मीन, खदान, सब कुछ पहले से कई गुना अधिक बड़े पैमाने पर देशी-विदेशी कॉरपोरेट मगरमच्छों को सौंपे जा रहे हैं, पर्यावरण आदि के संरक्षण के सारे नियम-कानूनों को ताक पर रख दिया गया है। रेल जैसे उपक्रमों को निजीकरण की झोंक में तबाही की राह पर धकेल दिया गया है और लोगों की जान से खिलवाड़ किया जा रहा है। सिर्फ पैसे बटोरने और लोगों को आपस में लड़ाने में माहिर निकम्मे, हृदयहीन और भ्रष्ट लोगों के हाथों में सरकारी तंत्र पंगु होता जा रहा है, जिसकी सबसे भयानक मिसाल गोरखपुर से लेकर झारखण्ड और मध्य प्रदेश तक सैकड़ों बच्चों की मौत है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मदों में जहां पहले ही बहुत कम राशि दी जाती थी, अब उसमें भी भारी कटौती कर दी गयी है। दूसरी ओर, बुलेट ट्रेन, गायों के लिए एंबुलेंस, मदरसों की वीडियोग्राफी और प्रधानमंत्री के जन्मदिन जैसे मदों पर बहाने के लिए सरकार के पास पैसे हैं।
मोदी के अच्छे दिनों के वायदे का बैलून जैसे-जैसे पिचककर नीचे उतरता जा रहा है, वैसे-वैसे हिन्दुत्व की राजनीति और साम्प्रदायिक तनाव का उन्मादी खेल जोर पकड़ता जा रहा है। इसे अभी और तेज किया जायेगा ताकि जन एकजुटता तोड़ी जा सके। अन्धराष्ट्रवादी जुनून पैदा करने पर भी पूरा जोर होगा। पाकिस्तान के साथ सीमित या व्यापक सीमा संघर्ष भी हो सकता है, क्योंकि जनाक्रोश से आतंकित दोनों ही देशों के संकटग्रस्त शासक वर्गों को इससे राहत मिलती है।
भाजपा सरकार ने जीएसटी बिल लागूकर, वित्त विधेयक 139 पास कर व श्रम कानूनों पर हमले कर बड़ी पूंजी का भरोसा जीता है, लेकिन मन्दी के दौर में भाजपा सरकार की ये नग्न नीतियां भी अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला की हवस को पूरा नहीं कर पा रही हैं। नतीजतन फासीवादी दमन चक्र अभी और बढ़ेगा। न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में इन दक्षिणपन्थी फासीवादी ताकतों के उभार के मूल में गहराते आर्थिक संकट ही है। क्रान्तिकारी विकल्प की अनुपस्थिति ने इन ताकतों को और बढ़ने का मौका दिया है।
लुब्बेलुबाब यह कि मोदी सरकार की नीतियों ने उस ज्वालामुखी के दहाने की ओर भारतीय समाज के सरकते जाने की रफ्तार को काफी तेज़ कर दिया है, जिस ओर घिसटने की यात्रा गत लगभग तीन दशकों से जारी है। भारतीय पूंजीवाद का आर्थिक संकट ढांचागत है। यह पूरे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहा है। बुर्जुआ जनवाद का राजनीतिक-संवैधानिक ढांचा इसके दबाव से चरमरा रहा है। भारत को चीन और अमेरिका जैसा बनाने के सारे दावे हवा हो चुके हैं। आने वाले डेढ़ साल में भक्तजनों को मुंह छुपाने को कोई अंधेरा कोना भी नहीं नसीब होगा। इसीलिए अब सारे वादे 2022 के किये जा रहे हैं। फिर ‘एण्टी-इन्कम्बेंसी’ का लाभ उठाकर केन्द्र में अब चाहे कांग्रेस की सरकार आये या तीसरे मोर्चे की शिवजी की बारात या संसदीय वामपन्थियों की मिली-जुली जमात, उसे भी इन्हीं नवउदारवादी नीतियों को लागू करना होगा, क्योंकि कीन्सियाई नुस्खों की ओर वापसी अब सम्भव ही नहीं। (‘मजदूर बिगुल’ से साभार)
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