प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिन्दी को वैश्विक भाषाओं में से एक बताया है। गृहमंत्री राजनाथ
राम ने पूछा, “रघुनन्दन! क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है? तुम्हारे खजाने का धन अपात्रों के हाथ में तो नहीं चला जाता?” इस मुद्दे पर मोदी सरकार के खर्च ज्यादा और आय कम है। इस घाटे को पाटने के लिए सरकार निरन्तर ऋण ले रही है। हाल में रिजर्व बैंक ने विदेशी निवेशकों द्वारा भारत सरकार के बॉड की खरीद की सीमा को बढ़ाने की पेशकश की है। भारतीय निवेशक सरकार को पर्याप्त मात्रा में ऋण देने से कतरा रहे हैं इसलिए अब विदेशी निवेशकों के माध्यम से सरकार ऋण लेना
चाहती है। सही है कि पिछले दशक में अर्थव्यवस्था पर ऋण का बोझ कुछ कम हुआ है। 2003 में सरकार द्वारा लिया गया ऋण देश की आय का 84 प्रतिशत था। 2013 में यह घट कर 66 प्रतिशत रह गया था। परन्तु ऋण में यह कमी सरकार द्वारा हाईवे आदि में उत्पादक निवेश में कटौती करके हासिल की गई है। सरकारी कंपनियों की इक्विटी में सरकार निवेश नहीं कर रही है, जोकि घातक है। अनुत्पादक खर्चों जैसे सरकारी कर्मियों के वेतन पूर्ववत् बढ़ते जा रहे हैं।
राम ने भरत से पूछा, “यदि धनी और गरीब में कोई विवाद छिड़ा हो और वह राज्य के न्यायालय में निर्णय के लिए आया हो तो तुम्हारे मंत्री धन आदि के लोभ को छोड़ कर उस मामले पर विचार करते हैं न?” माना जा रहा था कि गरीब को राज्य के न्यायालय में आने का रास्ता खुला है, लेकिन मोदी सरकार इस रास्ते को ही बंद कर देना चाहती है। वर्तमान में पर्यावरण की क्षति को लेकर गरीब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में जा सकता है। मोदी सरकार ने पर्यावरण कानूनों में संशोधन के लिए सुब्रह्मण्यम कमेटी बनाई थी। कमेटी ने सुझाव दिया है कि ग्रीन ट्रिब्यूनल के स्थान पर एक अपीलीय बोर्ड बनाया जाए जिसके अध्यक्ष हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज होंगे और दो सरकारी अधिकारी सदस्य होंगे। जाहिर है कि सरकारी अधिकारी सरकार की ही भाषा बोलेंगे। राम के बताए अनुसार जजों द्वारा निष्पक्ष विचार करना तो दूर, मोदी सरकार चाहती है कि गरीब को न्यायालय तक पहुंचने का रास्ता ही बंद कर दिया जाए। यह अलग बात है कि मोदी सरकार की इस मंशा का सांसदों की कमेटी ने विरोध किया है और फिलहाल इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। लेकिन सरकार की मंशा में बदलाव हुआ हो इसके कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं।
राम पूछते हैं, ”कृषि और गोरक्षा से जीविका चलाने वाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीतिपात्र हैं न? ” मोदी सरकार ने किसान की स्थिति सुधारने को एक भी कारगर कदम नहीं उठाया है। किसान की एकमात्र समस्या कृषि उत्पादों के न्यून दाम है। खेती घाटे का सौदा हो गया है। मोदी सरकार के पास कृषि उत्पादों के दाम बढ़ाने के लिए कुछ भी नहीं है। खरीद मूल्य में पूर्व के ट्रेड के अनुसार मामूली वृद्धि की गई है। हाल में उड़द के दाम न बढ़े, इसलिए आयात किया जा रहा है। सरकार के पास केवल दिखावटी प्रोग्राम है जैसे सायल हेल्थ कार्ड। किसान को सही फर्टिलाइजर का पता चल जाए तो भी खरीदने के लिए उसके पास पैसा नहीं है। ऐसे में किसान सरकार का प्रीतिपात्र कैसे बनेगा? यह सही है कि मोदी सरकार द्वारा बड़े उद्यमियों को आदर दिया जा रहा है और उन्हें देश में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये उद्यमी वैश्य समुदाय का एक छोटा हिस्सा बनाते हैं। देश के वैश्य समुदाय में करोड़ों किसान, स्वरोजगारी, दुकानदार और छोटे उद्यमी शामिल हैं। इस विशाल समुदाय के लिए मोदी सरकार के पास कुछ भी नहीं है। बल्कि नियमों को जटिल बनाकर मोदी सरकार उनके जीवन को जटिल बनाती जा रही है। राजा राम ने सभी वैश्यों की बात की थी न कि मुट्ठी भर सम्पन्न उद्यमियों की।
राम पूछते हैं, “क्या तुमने अपने ही समान शूरवीर, शास्त्रज्ञ, जितेन्द्रीय, कुलीन तथा बाहरी चेष्टाओं से ही मन की बात समझ लेने वाले सुयोग्य व्यक्तियों को ही मंत्री बनाया है।” आशय है कि शास्त्र जानने वाले तथा संयमी लोगों को ही उच्च कर्मचारी नियुक्त करना चाहिए। आज की परिस्थिति बिल्कुल विपरीत है। मोदी के कर्मचारी सरकारी आईएएस अधिकारी यानी गवर्नमेंट सर्वेन्ट्स हैं। प्रधानमंत्री यदि गलत दिशा में चल रहा है तो उन्हें सचेत करने के स्थान पर वे हां में हां मिलाकर उसे गड्ढे में पहुंचा देते हैं जैसे इंदिरा गांधी तथा वाजपेयी को इन अधिकारियों ने गड्ढे में पहुंचाया था। इस मुद्दे पर सोनिया गांधी ने सही नीति अपनाई थी। नेशनल एडवाइजरी काउंसिल में सर्वेन्ट्स को नहीं बल्कि स्वतंत्र विचारकों को रखा गया था। 2009 में कांग्रेस की जीत का श्रेय इन विचारकों को जाता है। तुलना में आज मोदी सर्वेन्ट्स के बताए रास्ते पर चल रहे हैं। किसी भी केन्द्रीय मंत्री से पूछ लीजिए। मंत्रियों के ऊपर पीएमओ के सर्वेन्ट्स का राज चल रहा है। मोदी सरकार पर आरोप लगते रहे हैं कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित हो रही है। मैं नहीं जानता कि सत्य क्या है। परन्तु संघ का अंकुश स्वतंत्र विचारों के समान होने में संदेह है। मनुस्मृति में कहा गया कि श्रेष्ठ ब्राह्मण वह है जिसे पता न हो कि अगला भोजन कहां से आता है। ऐसे फकीर ही राजा के सामने सर उठाने का साहस जुटा पाते हैं। तुलना में संघ का स्वरूप क्षेत्रीय संगठन का है। इसलिए नेशनल एडवाइजरी काउंसिल की तर्ज पर संघ का अंकुश कमजोर दिखता है। राजा को चाहिए कि स्वतंत्र वृत्ति वाले लोगों से मंत्रणा करे और समाज के परिदृश्य को समझे।
मोदी की शासन प्रणाली गाय, संस्कृत भाषा एवं योग तक सिमट कर रह गई है। इस प्रकार की कॉस्मेटिक भारतीयता की तो राम ने चर्चा भी नहीं की थी। निश्चित रूप से रक्षा तथा विदेश नीति के क्षेत्र में मोदी अच्छा कार्य कर रहे हैं। परन्तु यह पर्याप्त नहीं है। महाभारत में लिखा है कि राजा की स्थिति कपड़े से बने मष्क जैसी होती है। एक सिलाई भी खुल गई तो पानी नहीं ठहरता है। मोदी के मष्क में तो केवल दो सिलाई टिकी हुई है। शेष सब खुली पड़ी हैं। ऐसे में सत्ता कैसे टिकेगी?
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