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भघासन गांव के नौजवान पुष्पेंद्र राठौर (32) वर्ष 2005 में कुल्लू गए। वहां भुंतर और बजौरा में लगे अनार के बागीचों का उन्होंने दौरा किया। उनके गांव से मिलती जुलती भौगोलिक परिस्थितियों ने राठौर को हौसला दिया। इसी से प्रेरित होकर वर्ष 2006 में उन्होंने अपने गांव में प्रयोग के तौर पर अनार के 100 पौधे लगाए। नेरवा जैसे कम ऊंचाई वाले क्षेत्र में यह प्रयोग सफल हुआ और अब तो उन्होंने अपनी 60 बीघे जमीन में अनार की उन्नत किस्मों के 3500 पौधे लगा रखे हैं। राठौर बताते हैं कि वर्ष 2009 में पहला सेंपल आया, जिसे बढिय़ा दाम मिले। बीते साल करीब 10 क्विंटल अनार का उत्पादन हुआ, जिसे दिल्ली में 65 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से भाव मिले। उनके बागीचे में काबुली, कन्धारी, मृदुला और भगवा सिंदूरी जैसी उन्नत किस्में लगी हैं।
राठौर की इस सफलता को देखते हुए अब नेरवा के साथ लगते निचले क्षेत्रों के लोगों का रुझान पूरी तरह अनार की खेती की ओर है। आसपास के क्षेत्रों में अब तक अनार के लगभग 50 हजार पौधे लग चुके हैं।
बागवानी विशेषज्ञों के अनुसार कम उंचाई वाले क्षेत्रों में अनार की खेती एक कारगर विकल्प है। खासकर उन क्षेत्रों में जो ज्यादा सन्नी साइड में हों। कुल्लू, मंडी, सोलन, सिरमौर, बिलासपुर और शिमला जिला के कई निचले इकालों में अनार के बागीचे सफलतापूर्वक लग सकते हैं। इनके पौधों को आरंभ में अच्छी सिंचाई की आवश्यकता होती है। पौधा टिक जाने के बाद उनके सूखने की आशंका काफी कम रहती है। नेरवा के आसपास के क्षेत्रों की ऊंचाई 4 हजार फुट के करीब है। ऐसे में यहां अनार की अपार संभावनाएं हैं। पुष्पेंद्र राठौर का कहना है कि विपरीत मौसम भी अनार की फसल पर खास असर नहीं डालता है। इसमें नियमित रूप से फसल आती है और उत्पादन लागत भी सेब से कम है। अनार सेल्फ पॉलीनाइजर है, जिससे फसल टूटने की आशंका नहीं रहती। राठौर का कहना है कि सफल बागवानी के लिए अपनी नर्सरी होना आवश्यक है। इसलिए अब वह स्वयं अनार की नर्सरी भी तैयार कर रहे हैं। साथ ही आसपास के लोगों को भी नर्सरी उपलब्ध करा रहे हैं। उनका कहना है कि बाजार में अनार की भारी डिमांड रहती है और घर के नजदीक की मंडियों में भी खरीददार मिल जाते हैं। नेरवा के बागवान परमजीत और प्रीतम का कहना है कि राठौर को अनार उत्पादन में मिली सफलता उनके लिए प्रेरणा का काम कर रही है। उन्होंने भी अनार के पौधे लगाने शुरू कर दिए हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि प्रदेश के निचले गर्म इलाके अनार की खेती के लिए उपयुक्त हैं। सेब की तरह ही सर्दियों में पौधों की रोपाई के लिए बड्ढों और बागीचों का ले आउट तैयार किया जाता है। हालांकि सेब के मुकाबले अनार के लिए गड्ढा कुछ बड़ा होना चाहिए। पौधे लगाने के बाद हर दस दिन के अंतराल में इनकी सिंचाई होनी चाहिए। उनका कहना है कि अनार के बागीचों में फ्लावरिंग के दौरान खास किस्म की तितलियां फूलों के अंदर लारवा छोड़ती हैं, जो कुछ दिनों के बाद कीट में बदल जाता है और फल को नुकसान पहुंचाता है। इस अवस्था में बागीचों पर खास नजर रखने की आवश्यकता होती है। इस समस्या से निपटने के लिए बागीचे में फ्लावरिंग के दौरान क्लोरोपायरीफास या कार्बोसल्फान का छिड़काव करना चाहिए।