देहरादून। उत्तराखंड में भाजपा के हिंदुत्व राग का तोड़ कांग्रेस ने ढूंढ लिया है। चुनावी बेला में कांग्रेस पहाड़ी जनता को इस बार देव संस्कृति के नाम पर बांधने के प्रयास में है। हरीश रावत सरकार ने देवी- देवताओं की ‘सवारी’ कहे जाने वाले डंगरियों (गूरों) को पेंशन देने की घोषणा की है। परंपरागत वाद्य यंत्रों द्वारा देवी- देवताओं का आह्वान करने वाले जगरियों (बजंत्रियों) को भी इस योजना में शामिल किया जा रहा है। शिक्षित एवं जागरूक समाज में सरकार के इस कदम की कड़ी आलोचना हो रही है।
उत्तराखंड की संस्कृति में काल्पनिक देवी- देवताओं की बहुत मान्यता है। लोग डंगरियों के माध्यम से अपने दुख सुख देवी-देवताओं के साथ साझा करते हैं। देव समाज की ही एक कड़ी में जगरिये (बजंत्री) भी आते हैं, जो परंपरागत वाद्य यंत्रों को बजाकर डंगरियों में देवताओं का ‘अवतरण’ कराते हैं। अकसर इस ‘अवतरण’ में मौजूद सभी लोग डंगरिया बन कर नाचने लगते हैं और यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि किस डंगरिये में कौन देवता अवतरित हुआ है?
उत्तराखंड में ऐसे देवी- देवताओं के हजारों छोटे बड़े मंदिर हैं। प्रत्येक गांव में कम से कम एक मंदिर जरूर है। राज्य में शायद पहली बार देव समाज का इस स्तर पर राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास किया जा रहा है। पंचायती राज चुनावों में जरूर देव भय दिखा कर वोट किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में मोड़ने की खबरें सुनने में आती रही है।
समाज कल्याण विभाग के निदेशक वीएस धनिक ने बताया कि बहुत जल्द डंगरियों और जगरियों को एक-एक हजार रुपये पेंशन दी जाएगी। इसके लिए सर्वेक्षण पूरा हो गया है। सरकार के इस कदम की सोशल मीडिया में तीखी प्रतिक्रिया देखने में आई है।
वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वीरेन्द्र बर्त्वाल अपने फेसबुक वॉल पर प्रश्न उठाते हैं, “आखिर उन डंगरियों का क्राइटेरिया क्या है, जिन्हें पेंशन दी जानी है? पहाड़ में अमूमन हर घर में दो लोगों पर देवता आता है, इस हिसाब से तो यह संख्या राज्य की लगभग 30% जनसंख्या के बराबर पहुंच जाएगी। आप खुद ही छोटा- बड़ा डंगरिया का मानक बनाओगे तो यह लोगों की भावना से खिलवाड़ होगा। संभलकर सरकार!”
सीबी पांडे का कहना है कि सभ्यता को यदि खतरा है तो आतंकवाद से नहीं, गरीबी से नहीं, बेरोजगारी से नहीं, बल्कि ऐसी राजनीति से है जो कि वोट के लिए नये नये पैंतरे अपनाती है।
प्रताप नेगी इसे सरकार की बदतमीजी करार देते हुए कहते हैं, “यह खासकर पहाड़ियों को निकम्मा बनाने की एक और साजिश है। वृद्धावस्था, विधवा व विकलांग पेंशन तो समझ में आती है। यह डंगरिया पेंशन क्या है और क्यों? वास्तव में न देवता होता है और न ही भूत प्रेत होते हैं। यह सब मान्यताएं हैं। यदि डंगरिया पेंशन शुरू की गई तो पेंशन के लिए सभी डंगरिया बनकर नाचने लगेंगे। फिर देखिएगा क्या- क्या तमाशे होते हैं।”
वरिष्ठ पत्रकार एच. आनंद शर्मा ने कहा, “धर्मांधों में अकसर एक मानसिक बीमारी उपजती है, जिसमें वे कुछ समय के लिए स्वयं को किसी काल्पनिक देवी देवता का अवतार समझने लगते हैं और उसी के अनुरूप आचरण करते हैं। अशिक्षित समाज में यह बीमारी घर-घर में होती है और देव मान्यता के कारण फलती फूलती रहती है। इसका समाधान केवल और केवल वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील सोच को बढ़ावा देकर ही हो सकता है। सरकारें तो चाहती ही हैं कि समाज इसी तरह के मानसिक रोगों का शिकार रहे और अधिकारों को लेकर कोई सवाल न करे।”
हरी सेमाल्टी ने टिप्पणी की, “कांग्रेस जानती है कि कैसे लोगों को परजीवी बनाकर और लालच देकर राज किया जाता है।”
राकेश मोहन थपलियाल कहते हैं, “बस अब रावत जी के नाम का जागर लगेगा और चुनाव में पस्वों (डंगरियों) से पूछ कर टिकट दिए जायेंगे। सरकार चाहे तो अदालत में चल रहे मुकदमों में भी अपना पक्ष रखने से पहले देवता की राय पूछ सकती है।”
शिव सिंह रावत ने टिप्पणी की, “क्या बेतुकी बातें हैं? पहले आंदोलनकारी पेंशन, अब देवता के नाम पर। यह सरासर वोटरों को खरीदने का मायाजाल बुना जा रहा है।”