नैनीताल (हल्द्वानी)। द्रोणाचार्य-एकलव्य, रैदास-कबीर से शुरू हुई गुरु-शिष्य परंपरा हमारे सभ्य समाज में किस हाल में पहुंच गई, यह किसी से छिपा नहीं है।
बरेली रोड पर रहने वाले हिजड़ों की ग्रुप की लीडर हैं कजरी मौसी। लेकिन घर के बाहर लगे बोर्ड में आज भी गुरु वहिदा का नाम ही ऊपर है। वहिदा की उम्र 70 साल है। वह इधर-उधर जा नहीं सकतीं। इसलिए सारे काम कजरी को देखने पड़ते हैं। लेकिन होता वही है जो वहिदा चाहती हैं। इसके उलट हमारे यहां शायद ही कोई छात्र होगा जो शिक्षा पूरी करने के बाद शिक्षक को याद रखता होगा। हिजड़ों में शिष्य जितना गुरु का सम्मान करता है उतना ही त्याग गुरु का भी शिष्य के लिए होता है। गुरु-शिष्य का एक-दूसरे का सहारा बनने की परंपरा क्या कभी हमारे समाज में कायम हो सकती है?
देश-दुनिया में शायद हिजड़ा ही हैं, जिन्हें अकसर माता-पिता भी मंजूर नहीं करते। आगरा में जन्मी कजरी मौसी को अपने माता-पिता की शक्ल याद नहीं है। उनके लिए वहिदा ही सब कुछ हैं। उनका बचपन वाहिदा के साये में ही कटा। बचपन के बारे में कजरी को कुछ याद नहीं सिवाय इसके कि उन्होंने जो मांगा उनकी गुरु ने दिया। करीब 25 साल पहले दोनों गुरु-शिष्या दिल्ली, हरिद्वार होते हुए हल्द्वानी आकर बस गए थे।
हिजड़े जहां भी रहते हैं उनका एक दल होता है। इसमें गुरु ही प्रधान होता है और वही पूरे दल का संचालन करता है। दल के लोग हर काम में बुजुर्ग हिजड़ों की राय जरूर लेते हैं। गुरु के बाद वरिष्ठ शिष्य को दल मुखिया बना दिया जाता है और फिर गुरू के कर्तव्यों का निर्वहन करता है।