नई दिल्ली। देश में इन चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया है कि कारपोरेट ‘विकास’ के इस दौर में नौकरियां आखिर कहां गुम हो गईं? आखिर नए रोजगार क्यों पैदा नहीं हो रहे? इस ताजा चर्चा के पीछे लेबर ब्यूरो द्वारा हाल ही में किया गया सर्वे है, जिसमें सामने आया है कि देश में वर्ष 2015 में मात्र 1.35 लाख लोगों के लिए ही रोजगार पैदा हो पाया, जबकि 2014 में 4.90 लाख लोगों के लिए रोजगार पैदा हुआ था। वर्ष 2009 में यह आंकड़ा 12.50 लाख लोगों के लिए रोजगार का था। सर्वे के अनुसार देश में सबसे अधिक रोजगार दिलाने वाले उद्योगों- कपड़ा, वस्त्र, आभूषण, सूचना प्रौद्योगिकी, चमड़ा, हथकरघा, धातु तथा आटोमोबाइल की हालत भी इस मामले में काफी निराशाजनक रही।
देश में जहां तक ग्रामीण रोजगार का सवाल है, हालात और भी खराब हैं। घरेलु उत्पाद में खेती का अंशदान घट रहा है, खेती से इतर रोजगार का ऐसा कोई कार्य भी नहीं हो रहा है, जिससे ग्रामीण गरीबों तथा युवाओं को रोजगार मिल सके। इसी मार्च के तीसरे सप्ताह तक मनरेगा के अंतर्गत काम मांगने वालों की संख्या 8.40 करोड़ हो चुकी है, जिससे पचा चलता है कि ग्रामीण बेरोजगारी की समस्या कितनी विकराल है।
नरेंद्र मोदी और भाजपा ने लोकसभा चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर रोजगार मुहैया कराने को अपना मुख्य चुनावी वादा बनाया था। लेकिन दो साल बीत चुके हैं, सरकार का इस मामले में रिकार्ड बहुत ही निराशाजनक रहा है। यह सरकार सकल घरेलु उत्पाद में 7.5 फीसदी की वृद्धि का दावा कर रही है। यह दावा भी संदेह के दायरे में आ गया है।
बहरहाल, इतना तो साफ ही हो गया है कि इस तरह की नव उदारवादी वृद्धि रोजगार पैदा नहीं करती है। रोजगार की इस निराशाजनक स्थिति की सच्चाई के सामने आने के बाद भी प्रतिष्ठानी अर्थशास्त्री और कारपोरेट मीडिया में बैठे विश्लेषणकर्ता हर बार की तरह भांति- भांति के सुझाव देने में अटके हुए हैं कि कैसे अर्थव्यवस्था में नई जान डाली जाए तथा किस तरह रोजगार पैदा किए जाएं। लेकिन वे हमेशा की तरह सच्चाई को पकड़ ही नहीं पा रहे हैं।
सीधी सी बात यह है कि नवउदारवादी आर्थिक वृद्धि रोजगार पैदा नहीं करती है। इस रास्ते पर चल रही अर्थव्यवस्था में चाहे कितनी ही ठोक पीट क्यों न की जाए, रोजगार की समस्या हल नहीं हो सकती। इस समस्या को हल करने के लिए तो नीतियों में ही बुनियादी बदलाव लाना होगा। निजी निवेश तथा निजीकरण पर बढ़ती निर्भरता से रोजगार नहीं पैदा होने वाले। इसकी सीधी सी वजह यह है कि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था, निवेशों के प्रवाह को पूंजी- सघन तथा श्रम बचाने वाली प्रौद्योगिकियों की ओर ही धकेलती है। इससे बड़ी श्रमशक्ति की जरूरत ही नहीं रह जाती है। इसमें यदि रोजगार उपलब्ध भी होता है तो वह ठेका रोजगार ही होता है, जो रोजगार को कहीं ज्यादा अस्थिर तथा अल्पावधि वाला बनाकर रख देता है। याद रहे कि अनौपचारिक क्षेत्र, जो भारत में सबसे ज्यादा रोजगार मुहैया कराने वाला क्षेत्र है, में भी 2004-05 से 2011-12 के बीच रोजगार में पूरे 6 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई थी।
नवउदारवादी वृद्धि की प्राथमिकता में न तो श्रम सघन उद्योगों का विकास आता है और न ही लघु औद्योगिक इकाइयों का विकास। व्यापार उदारीकरण ने बाहर से आयात औद्योगिक मालों पर कर घटा दिए हैं, जिसने अनेक क्षेत्रों में घरेलू उद्योगों को आर्थिक रूप से अवहनीय बना दिया है। यह इसी का नतीजा है जो आज अनेक क्षेत्रों में निरुद्योगीकरण हुआ है।
नव उदारवादी नीतियों के हिस्से के तौर पर सरकार बड़े कारपोरेट खिलाड़ियों तथा संपन्न तबकों को दसियों हजार करोड़ रुपये की सब्सीडियां देती है तथा उन पर बनने वाले कर भी छोड़ देती है। दूसरी ओर, लाखों स्त्री- पुरुषों को आजीविका तथा रोजगार देने वाले परंपरागत उद्योगों जैसे- हथकरघा, काजू, नारियल जटा, दस्तकारी आदि को मदद देना सरकार को मंजूर नहीं है। इसके अलावा खेती में सार्वजनिक निवेश में कटौती और शिक्षा, स्वास्थ्य, मनरेगा आदि सामाजिक क्षेत्र में भारी कटौतियां भी देश में रोजगार की संभावनाओं के सिकुड़ने में सहयोग कर रही हैं।