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रास्ता सही, मगर रफ़्तार बढ़ानी होगी

समीक्षा हमेशा कठिन रहती है। खासकर तब जब आपको गुण और दोष,

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प्राप्तियों और नाकामियों, दोनों का ही जिक्र करना हो। ये आलोचना से कहीं ज्यादा दुष्कर काम है। आलोचना में आपको सिर्फ मीन मेख निकालनी होती है। लेकिन जब आप समीक्षा करते हैं तो आपको बेहतर और कमतर दोनों का ध्यान रखना होता है। ऐसे में अगर मोदी सरकार के दो साल के कार्यकाल की समीक्षा करने बैठें तो भी ये संभव नहीं है कि तमाम चीज़ें एक छोटे से लेख में सिमट जाएं या आप ऐसा करने में सफल हो पायें। कुछ न कुछ छूटना लाजिमी है। गुणों की गणना में भी और दोषों की गिनती में भी। लेकिन फिर भी अगर मोटे तौर पर देखें तो मोदी सरकार के दो साल मनमोहन सरकार की तुलना में बेहतर ही रहे हैं।

लेखक, संजीव शर्मा, दैनिक न्याय सेतु के संपादक हैं।

किसी भी सरकार को परखने के लिए सामान्यतः देशी और विदेशी दो संभागों में बांटा जाता है। बात पहले देशी मोर्चे की। इस मोर्चे पर मोदी सरकार को मिश्रित फल हासिल हुए हैं। सियासी तराजू में तौलने पर देखेंगे कि केंद्र में सरकार बनाने के एकदम बाद आये हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों ने इतिहास रच डाला और हरियाणा में भाजपा की पहली अपनी सरकार बनी। हरियाणा में भाजपा ने भी खुद इतनी बड़ी सफलता की उम्मीद शायद ही की हो। चूँकि हरियाणा में पहले से कोई मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया गया था, लिहाज़ा उस जीत को सीधे मोदी के करिश्मे से ही जोड़ा गया। लेकिन ये करिश्मा दिल्ली में कुंद पड़ गया। बल्कि दिल्ली में हरियाणा के बिलकुल उलट हुआ। भाजपा दिल्ली में अपनी जीत के प्रति आश्वस्त थी, लेकिन दिल्ली वालों ने इसकी गत ही बिगाड़ दी। भाजपा का अपना तालमेल भी गड़बड़ा गया। पार्टी के खुद के कई शांत, मनोहर, कीर्तिवान और यशस्वी चेहरे शत्रु बनकर उभर आए। इसी दौरान पार्टी को महाराष्ट्र में भी झटका लगा। हालाँकि वो अंतिम समय में पुरानी सहयोगी शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने में कामयाब रही, लेकिन तब तक मोदी मैजिक पर सवाल उठने शुरू हो गए थे। इन सवालों को बिहार के चुनाव ने और बड़ा कर डाला जब बिहार में महागठबंधन के हाथों तगड़ी हार का सामना करना पड़ा। नितीश -लालू की जुगलबंदी ने एकबारगी तो ये एहसास करा दिया कि भाजपा जैसे थम गयी हो. लेकिन ये ठहराव हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में फिर से आगे खिसका और इसने गति पकड़ी है। खासकर असम जैसे राज्य में जीत कर भाजपा अब पूर्वोत्तर में पाँव जमाने की ओर मजबूती से बढ़ी है। सियासी मोर्चे पर मोदी सरकार के रणनीतिकार जिन अन्य जगहों पर असफल हुए हैं, उनमें जम्मू-काश्मीर, अरुणाचल प्रदेश और उतराखंड भी अहम घटनाएं हैं। अरुणाचल और उतराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने की जल्दबाजी ने मोदी सरकार की आंतरिक नीतिओं पर सवाल खड़े किये हैं। खासकर तब जब भाजपा खुद आर्टिकल 356 के दुरूपयोग को लेकर हाय तौबा मचाती रही हो। दोनों ही राज्यों में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और शीर्ष अदालत के दखल के बाद राष्ट्रपति शासन वापस लेना पड़ा। उतराखंड में तो पार्टी की इस मसले पर खासी फजीहत भी हुई। इससे एक सन्देश ये भी गया की सरकार के न्यायपालिका के साथ सम्बन्ध तल्ख़ है। फिर चाहे उसके पीछे जजों की नियुक्ति का मसला हो या कोई अन्य वजहें, लेकिन इन सारे प्रकरणों में भाजपा को झटके ही लगे हैं। इसी तरह पार्टी जम्मू- कश्मीर में भी असफल रही। हालाँकि अभी भी वहां उसकी साँझा सरकार है, लेकिन मुफ़्ती मुहमद सईद के इंतकाल के बाद उनकी बेटी संग सरकार बनाने को लेकर जो सियासी नौटंकी हुई, उससे भी पार्टी को नुकसान ज्यादा हुआ है। अब सत्ता में रहकर उस नुकसान की कितनी भरपाई हो पाती है, ये देखने वाली बात है।

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सियासी मोर्चे के इतर सरकार महंगाई रोकने में भी पूरी तरह से असफल हुई है। बिना शक लोकसभा चुनावों में ये सबसे बड़ा मुद्दा था, लेकिन खाद्य पदार्थों के दाम नाथने में सरकार पूरी तरह नाकाम रही है। और अब जबकि एक पूरा फसल चक्र समाप्त हो चुका है, उसके बावजूद अनाज और दालों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। इसी अनुपात में लोगों में भ्रष्टाचार को लेकर भी सब्र का बांध टूट रहा है। भ्रष्टाचार से मुक्ति के जिन अच्छे दिनों की उम्मीद लोगों में जगी थी, वो धराशायी हो चुकी है। कालेधन पर सरकार की कलई खुली है और अब लोग इस मामले में सरकार पर चुटकुले बना- सुना रहे हैं। अगस्टा डील और पनामा लीक्स जैसे मामलों में थोड़ी प्रगति से सरकार हालाँकि खुद को सांत्वना देने की कोशिश में है, लेकिन इसका असर संसद में विपक्ष को दबाने से जायदा नहीं है। आम जनमानस में भ्रष्टाचार के मसले पर लोगों में सरकार के प्रति विश्वास डगमगाया है। सरकार के ही कुछ बड़े नेताओं के नाम घोटालों में उछलने से उलटे अब लोग सबको एक ही कश्ती का सवार मानने लगे हैं। ये सरकार के लिए चिंताजनक है। क्योंकि अगर किसी मुद्दे पर कोई विशेष जनभावना बन जाती है तो ये तय है कि उसकी कीमत सरकारों को बड़े नुकसान से चुकानी पड़ती है।

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हालाँकि कुछ ऐसी योजनायें भी सरकार ने शुरू की हैं जिनकी सराहना हो रही है। पी एम ने आते ही जिस तरह से स्वच्छ भारत अभियान को अपना मिशन बनाया, उससे न सिर्फ देश में सरकार को साधुवाद मिला है, बल्कि विदेशों में भी इस मुहिम की तारीफ हुई है। इसी तरह सक्षम लोगों से गैस की सब्सिडी छुड़वाकर गरीबों को उसका लाभ देने की योजना भी लाजवाब है। दो साल में भारत जैसे देश में  जहां जनमानस की सोच अधिकांशत: सुविधाएं हासिल करने की ही रहती है, वहां पर एक करोड़ से अधिक लोगों का गैस की सब्सिडी छोड़ना निश्चित ही बड़ी उपलव्धि है और इसके लिए पी एम मोदी साधुवाद के पात्र हैं। ये उनकी निजी अपील का ही परिणाम है। लाल बहादुर शास्त्री के बाद ऐसा आह्वान न तो किसी और प्रधानमंत्री ने किया और ना ही ऐसा रिस्पांस मिला है। इसी तरह प्रधानमंत्री जनधन योजना भी एक अच्छी शुरुआत कही जा सकती है जो फिलवक्त बाबूशाही में फंस गयी लगती है। उज्ज्वला जैसे पचास करोड़ की योजना के जरिये गरीब महिलाओं को चूल्हे के धुएं से मुक्त कराकर गैस कनेक्शन उपलव्ध कराना मोदी सरकार का एक अन्य बड़ा संकल्प है। ये अपने आप में अनूठी योजना है जो अन्यत्र किसी भी देश में आपको देखने को नहीं मिलेगी। इसके अतिरिक्त ऐसा भी भारत में पहली बार ही हुआ है कि किसी आम नागरिक ने ट्वीट किया हो और उसे सुरक्षा/सहायता मिली हो। रेलवे में तो ऐसे कईं उदाहरण आपको मिल जायेंगे। महाराष्ट्र के भुसवाल में मनचलों की छेड़छाड़ से परेशान लड़की हो, नन्हीं बेटी की बीमारी में लाचार यूपी का इंजीनियर हो या भूख से बेहाल देहरादून के स्कूल के बच्चे…जिस तरह से रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने चलती रेल में जरुरतमंदों को राहत पहुंचाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया है वो काबिले तारीफ है और निश्चित ही अच्छे दिनों का एहसास दिलाता है। इसी तरह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी खाड़ी में फंसे भारतियों को ट्विटर पर सूचना मिलने के बाद मदद पहुंचा चुकी हैं। हालाँकि अन्य मंत्रालय इस मामले में पीछे हैं, लेकिन चलिए एक शुरआत तो हुई ही है। भारत ने स्वेदशी जीपीएस, पृथ्वी और स्वेदशी सेप्स शटल के प्रक्षेपण से भी अच्छे दिनों का एहसास कराया है। हालाँकि ये उप्लाव्धियाँ किसी एक या दो साल में नहीं बांधी जा सकतीं, लेकिन जिस तरह से पीएम ने परम्पराएं तोड़ते हुए वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का हौसला खुद उनके बीच जाकर बढ़ाया है वो मायने रखता है। आंतरिक मोर्चे पर पठानकोट हमलों के अतिरिक्त कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं होने देना भी उपलब्धि मानी जा सकती है। हालाँकि सीमा पर शत्रु की शरारतें बदस्तूर जारी हैं, लेकिन इन दो वर्षों में ऐसा भी पहली बार हुआ है कि भारत ने विदेशी सीमा लांघकर किसी आतंकी संगठन को नेस्तनाबूद किया हो। उम्मीद है कि बांग्लादेश सीमा के पार हुई इस कार्रवाई का संकेत पाकिस्तान तक उसी अंदाज़ में पहुंचा होगा। वैसे पठानकोट मामले में भी जिस तरह से भारत ने पाकिस्तान को नाथ रखा है, उससे भी एक कूटनीतिक दबाव तो बना ही है और संकेत गया है कि भारत में सुरक्षा का स्तर पहले से अधिक हुआ है। दिवाली सीमा पर जाकर मनाना, युद्धपोत पर कमांडर कांफ्रेंस करना पीएम मोदी के कुछ ऐसे फैसले हैं जो सेना का मनोबल बढाते हैं।

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उधर, विदेशी मोर्चे पर सरकार ने जरूर एक के बाद एक अहम मुकाम हासिल किये हैं। अमरीका फ़्रांस, जापान को लाइन पर लाने में पीएम सफल रहे हैं और इसका असर अन्य विदेशी मोर्चों पर भी साफ दिख रहा है। अचानक पाकिस्तान पहुंचकर मोदी ने पूरे विश्व समुदाय में एक सद्भावना भरा संकेत ही दिया, जिसका असर ये रहा है कि अब भारत की सुरक्षा परिषद् में दावेदारी दिन ब दिन मजबूत होती जा रही है। चीन और पाकिस्तान के विरोध के बावजूद मसूद अज़हर को रेड कार्नर नोटिस भी एक बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि है। हालाँकि रूस और नेपाल के मामले में भारत कुछ घाटे में रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि नए दोस्त बनाने के अति उत्साह में भारत से ये पुराने साथी नाराज़ हुए हैं। इस लिहाज़ से इन मोर्चों पर आगे ज्यादा संजीदगी बरतने की जरूरत है। हाल ही में ईरान से चाबहार समझौता विदेश नीति की सफलता का एक और बड़ा उदाहरण है। अगले माह अमरीका में मोदी सांसदों को संबोधित करने जा रहे हैं। उसके भी अपने मायने हैं। कुलमिलाकर बिना शक विदेश नीति के मामले में मोदी सरकार ने विश्व में भारत का डंका बजाया है। लेकिन घरेलु मोर्चे पर उसे उस अनुपात में न तो सफलता मिली है और न ही जन्संतुष्टि। भारत जैसे लोकतंत्र में जन संतुष्टि चूंकि बहुत अहम् है, लिहाज़ा ये आने वाले समय में सरकार की सबसे बड़ी चिंता होनी चाहिए। ज्यादा दबाव इसलिए भी है कि एक तो भारत में लोगों के सब्र का बाँध लबालब है, दूसरे हर मंच से साठ साल के बदले साठ महीने मांगे गए हैं। ऐसे में परिणामों के परिलक्ष्ण का दवाब तो रहेगा ही। खैर उन साठ महीनों में से 24 गुज़र गए हैं, और अब 36 बचे हैं। 36 के आंकड़े को हमारे यहाँ नकारात्मक रूप में लिया जाता है, लेकिन 6+3 को 9 के रूप में भी देखा जाता है, जिसे सर्वत्र सम्पन्नता का अंक माना जाता है। बिना शक 24 माह सही दिशा में समृद्धि के बीज रोपने में बीते हैं, लेकिन इसकी फसल सही समय पर काटी जाये, इसके लिए और अधिक तेज़ी से मेहनत करनी होगी। अभी तक मोदी अकेले ही मेहनत करते दिख रहे हैं। ज्यादा अच्छा हो अगर उनके मंत्री भी उनका अनुसरण करते हुए स्फूर्ति अपनाएं।

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