Advertising

माओ और उनके प्रमुख राजनीतिक विचार

माओ त्से-तुंग या माओ ज़दोंग प्रमुख चीनी क्रान्तिकारी, राजनैतिक विचारक और साम्यवादी (कम्युनिस्ट) दल के नेता थे, जिनके नेतृत्व में चीन की क्रान्ति सफल हुई। उन्होंने जनवादी गणतन्त्र चीन की स्थापना (1949) से मृत्यु पर्यन्त (1976) तक चीन का नेतृत्व किया। मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर उन्होंने जिस सिद्धान्त को जन्म दिया उसे माओवाद नाम से जाना जाता है।

Advertisement

विश्वभर में बहुत लोग माओ को एक विवादास्पद व्यक्ति मानते हैं, परन्तु चीन में वे महान क्रान्तिकारी, राजनैतिक रणनीतिकार, सैनिक पुरोधा एवं देशरक्षक माने जाते हैं। चीनियों के अनुसार माओ ने अपनी नीति और कार्यक्रमों के माध्यम से आर्थिक, तकनीकी एवं सांस्कृतिक विकास के जरिए चीन को विश्व में प्रमुख शक्ति के रूप में खड़ा करने में मुख्य भूमिका निभाई है। वे कवि, दार्शनिक, दूरदर्शी महान प्रशासक के रूप में गिने जाते हैं।

माओ का जन्म 26 दिसम्बर 1893 में हूनान प्रान्त के शाओशान क़स्बे में हुआ। उनके पिता एक ग़रीब किसान थे। 8 वर्ष की उम्र में माओ ने अपने गांव की प्रारम्भिक पाठशाला में पढ़ना शुरू किया, लेकिन 13 वर्ष की आयु में अपने परिवार के खेत पर काम करने के लिए पढ़ना छोड़ दिया। बाद में खेती छोड़कर वे हूनान प्रान्त की राजधानी चांगशा में माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने गए। जिन्हाई क्रांति के समय माओ ने हूनान के स्थानीय रेजिमन्ट में भर्ती होकर क्रान्तिकारियों की तरफ से लड़ाई में भाग लिया। चिंग राजवंश के सत्ताच्युत होने पर वे सेना छोड़कर पुनः विद्यालय गए। वर्ष 1918 में स्नातक की डिग्री प्राप्त की।

माओवादी राजनीतिक चिंतन के सन्दर्भ में विद्वानों में दो मत हैं। एक मत के अनुसार माओवाद में मार्क्स, लेनिन और स्टालिन के विचारों का मिश्रण है, जबकि दूसरे मत के अनुसार माओवाद का अस्तित्त्व एक स्वतंत्र और मौलिक विचारधारा है। उनके विचारों का निर्माण चीनी संस्कृति के बीच हुआ।

Advertisement

माओ के प्रमुख राजनीतिक विचार निम्न हैं-

शक्ति का दर्शन : माओ को शक्ति का पुजारी माना जाता है। माओ के अनुसार, ‘राजनीतिक शक्ति में विचारों का प्रमुख स्थान है। विचारों के बाद सैनिक शक्ति को महत्त्व दिया जाता है। राजनीतिक शक्ति बन्दूक की नोंक में से पैदा होती है। मजदूर वर्ग और श्रमिक जनता बन्दूक की शक्ति के बिना सशस्त्र पूंजीपतियों और जमींदारों को पराजित नहीं कर सकती। केवल बन्दूक की शक्ति के द्वारा ही विश्व को एक नये सांचे में ढाला जा सकता है।’

असंगति अथवा अन्तर्विरोध का सिद्धांत: चीन के सामाजिक विकास को स्पष्ट करते हुए माओ ने ‘ऑन कंट्राडिक्शन’ में असंगति के सिद्धान्त का विस्तार से प्रतिपादन किया है। माओ के अनुसार, ‘असंगतियां भिन्न- भिन्न प्रकार की हैं और प्रत्येक प्रकार की असंगती को हल करना साम्यवादी का कार्य है। गुणात्मक रूप से भिन्न असंगतियों का केवल गुणात्मक रूप से विभिन्न साधनों के द्वारा ही हल किया जा सकता है, जैसे पूंजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच की असंगति को समाजवादी क्रान्ति के तरीके से हल किया जाता है, सामन्ती व्यवस्था और आम जनता के बीच की असंगति राष्ट्रीय क्रान्तिकारी युद्धों से हल होती है, जबकि समाजवादी समाज में किसानों और मजदूरों के बीच की असंगति कृषि के समूहीकरण और यन्त्रीकरण के तरीके से हल होती है।’

माओ ने चीनी समाज को अन्तर्विरोधों से युक्त समाज बताया- उन्होंने बार-बार कहा कि ‘संसार में सर्वत्र अन्तर्विरोध पाया जाता है, अगर अन्तर्विरोध न हो तो संसार ही नहीं होता। अन्तर्विरोध मनुष्य और प्रकृति के बीच में ही नहीं समाजवादी समाज में भी पाये जाते हैं। पूर्ण साम्यवाद स्थापित हो जाने के पश्चात् भी विरोध बना रहता हैं।’

जनयुद्ध का सिद्धान्त : ‘जनयुद्ध’ की संकल्पना मार्क्सवादी-लेनिनवादी दर्शन में एक नई संकल्पना है जिसके विकास का श्रेय माओ को ही प्राप्त है। माओ ने संघर्ष में सेना और हथियारों से भी अधिक महत्त्व जनता को दिया है। इसी कारण माओ ने अधिक से अधिक व्यापक आधार पर जनयुद्ध की कल्पना की। उन्होंने अपने सभी आन्दोलनों और कार्यक्रमों में देश के अधिक से अधिक लोगों को झोंकने एवं सक्रिय करने का प्रयत्न किया। उनका स्पष्ट मत था कि रूस की भांति सर्वहारा की तानाशाही और दलील व्यवस्था से चीन की आवश्यकताएं पूरी नहीं होंगी। चीन जैसे विशाल समाज में राजनीतिक और प्रशासनिक आन्दोलन एवं क्रिया की सफलता अधिक से अधिक जनता की सक्रिय हिस्सेदारी पर निर्भर है।

Advertisement

 नवीन लोकतन्त्र: माओ के अनुसार साम्यवादी क्रान्ति के तुरन्त बाद ‘साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना नहीं हो सकती। साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए पर्याप्त पृष्ठभूमि तैयार करनी पड़ेगी और एक संक्रमणकालीन व्यवस्था की स्थापना से गुजरना पड़ेगा। यह संक्रमणकालीन व्यवस्था ही माओ के अनुसार ‘नवीन लोकतंत्र’ है। इसमें पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्था का मिश्रित रूप होगा तथा अनेक लोकतान्त्रिक वर्ग मिल-जुलकर कार्य करेंगे। नवीन लोकतंत्र में मजदूर, कृषक, लघु बुर्जुआ और राष्ट्रीय बुर्जुआ मिलकर कार्य करेंगे। यह व्यवस्था आरंभ में पूंजीवाद को प्रोत्साहन देगी, साम्यवाद का न्यूनतम कार्यक्रम चलायेगी और इसका लक्ष्य धीरे-धीरे अधिकतम साम्यवादी कार्यक्रम द्वारा भविष्य में “साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना होगा। नवीन लोकतंत्र की विशेषता साम्यवादी दल का नेतृत्त्व, सभी वर्गों से मिलकर एक संयुक्त मोर्चा तथा मिश्रित अर्थव्यवस्था होगी।”

 क्रांति में कृषकों को महत्व: माओ ने चीनी क्रांति का आधार श्रमिकों से अधिक कृषकों के राजनीतिक संगठन को बनाया। माओ पहला साम्यवादी नेता थे, जिन्होंने यह घोषणा की कि किसानों में क्रान्तिकारी कार्यवाही करने की क्षमता स्वतंत्र रूप से थी। वर्ष 1924 से माओ हुनान में कृषकों को संगठित करने लगे। 1926-27 के बीच वे इस निर्णय पर पहुंचे कि क्रान्ति कृषकों पर आधारित होनी चाहिए। क्रान्ति में लेनिन ने कृषकों के महत्त्व को स्वीकार किया था, किन्तु माओ की क्रान्ति पूरी तरह से कृषकों पर आधारित हो गई।

जनसाधारण की भूमिका : माओ का विचार था कि क्रान्ति लाने में जनसाधारण अथवा जन सामान्य का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। उनका मानना था कि नौकरशाही ढंग के साधनों में एक बड़ी कमी यह है कि वे नेतृत्त्व को जनता के साथ जोड़ने में सफल नहीं हो पाते। उनका स्पष्ट मत था कि ‘जब तक देश की जनता जागृत होकर क्रान्ति में भाग लेने के लिए तत्पर नहीं हो जाती तब तक वे सभी काम जिनमें उसका भाग लेना आवश्यक है, खोखली औपचारिकता मात्र बनकर रह जायेंगे और उसका अन्त असफलता में होगा।’

उन्होंने अपने एक भाषण में बुद्धिजीवियों को सलाह दी कि जनता से अलग रखने की आदत से स्वयं को मुक्त करें। उन्होंने कहा, ‘जनसाधारण के विचारों को समझो, उन्हें एक व्यवस्थित रूप में ढालो, उन पर अपना ध्यान केन्द्रित करो, तब उन विचारों को लेकर जनसाधारण के पास जाओ और तब तक उनका प्रचार करते रहो जब तक जनसाधारण उन्हें स्वयं अपना विचार मानकर स्वीकार न कर ले, उसके बाद उन पर दृढ़ता से जमे रहो और उन्हें कार्यरूप में परिणित करो।’

Advertisement

 युद्ध की अनिवार्यता का सिद्धान्त: माओ सैद्धान्तिक आधार पर युद्ध की अनिवार्यता में विश्वास करते थे। उनके अनुसार ‘साम्राज्यवाद में अन्तर्विरोध हैं और यह अपने अन्तर्विरोधों के कारण विस्फोट करेगा और एक वर्गविहीन विश्व का निर्माण करेगा। युद्ध अन्तर्विरोध को हल करने के लिए किये जाने वाले संघर्ष का सर्वोच्च रूप है और जब राष्ट्रों अथवा राजनीतिक समूहों के बीच के ये अन्तर्विरोध विकसित होकर एक निश्चित मंजिल पर पहुंच जाते हैं तो युद्ध प्रारम्भ होता है।’ अन्तर्राष्ट्रीय जगत में माओ सहयोग, सहअस्तित्त्व के विरोधी हैं। उनके अनुसार ‘जब तक शोषण है, तब तक युद्ध रहेंगे। तीसरा विश्वयुद्ध साम्राज्यवादी शिविर तथा समूचे पूंजीवाद का समूल उन्मूलन करने वाला होगा।’

विश्व का दो विरोधी गुटों में विभाजन: माओ विश्व को दो विरोधी शिविरों (गुटों) में विभाजित मानते थे- एक समाजवादी शिविर में पूर्वी यूरोप सहित सभी साम्यवादी देश शामिल थे, जबकि दूसरे साम्राज्यवादी शिविर में अमेरिका सहित अन्य पूंजीवादी देश शामिल हैं। उन्होंने यह स्पष्ट घोषणा की कि इन दो शिविरों से अलग रहने याले तटस्थ (निर्गुट) राष्ट्रों की कोई सत्ता नहीं है।

 गुरिल्ला युद्ध :  माओ के अनुसार गुरिल्ला युद्ध (छापामार युद्ध) एक ऐसा हथियार है, जिससे अस्त्र-शस्त्रों और सैनिक साज-सामानों की दृष्टि से कमजोर राष्ट्र अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली हमलावर देश के खिलाफ संघर्ष कर सकता है। माओ ने छापामार या गुरिल्ला युद्ध तकनीक द्वारा चीन जैसे अविकसित देश में समाजवाद स्थापित करने का प्रयत्न किया।

Advertisement

सांस्कृतिक क्रान्ति : चीन में वर्ष 1966 में सांस्कृतिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ और यह क्रान्ति माओ की मृत्यु (1976) तक चलती रही। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान सर्वत्र माओवाद का बोलबाला था। उनके विचारों को संग्रह करके उन्हें एक छोटी सी पुस्तक का रूप दे दिया गया जो लाल किताब’ (Red Book) के नाम से विख्यात थी। पुस्तक का खास सन्देश था ‘राजनीतिक शक्ति बन्दूक की गोली से हासिल की जाती है।’ लेखकों को इस बात की आजादी नहीं दी जा सकती कि वे मनचाहे विषयों पर अपनी कलम चलायें। बुद्धिजीवियों और लेखकों का कर्त्तव्य है कि वे अपनी रचनाओं द्वारा केवल मार्क्सवाद व माओवाद का ही प्रचार करें। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान इस बात पर विशेष बल दिया गया कि पार्टी के सदस्य और सेना के पदाधिकारी शान-शौकत के जीवन को तिलांजलि देकर आम लोगों की तरह से रहें। स्कूल और कॉलेज की परिक्षाएं स्थगित कर दी गईं तथा विद्यार्थियों के लिए ‘शारीरिक परिश्रम’ अनिवार्य कर दिया गया। छात्र-छात्राओं को खेतों में ले जाकर उनसे काम लिया जाता था। विद्यार्थियों की टोलियों को गांवों में भेजा गया ताकि वे वहां माओ के विचारों का प्रचार प्रसार करते हुए किसानों को खेतीबाड़ी एवं मवेशियों को पालने की नई व वैज्ञानिक विधियां समझायें।

लाल सेना: माओ ने अप्रैल 1966 में बड़े पैमाने पर युवकों का एक संगठन खड़ा किया, जो लाल सेना के नाम से जाना जाता था। 12-13 वर्ष की आयु से लेकर 25 वर्ष की आयु तक के 10 लाख से भी ज्यादा किशोर व नौजवान ‘लाल सेना’ में भर्ती हुए। माओ की सांस्कृतिक क्रान्ति की अवधारणा केवल ‘संस्कृति’ तक ही सीमित नहीं थी। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में सिद्धान्त को व्यवहार से जोड़ने की बात कही। सांस्कृतिक क्रान्ति को आर्थिक विकास से भी जोड़ा गया। सांस्कृतिक क्रान्ति के नेताओं का यह प्रयास था कि प्रत्येक क्षेत्र जहां तक हो सके कृषि और औद्योगिक दृष्टि से स्वावलम्बी बने।

क्रान्ति का स्वरूप: माओ के अनुसार, ‘क्रान्ति का अर्थ केवल आर्थिक प्रणाली को नया रूप देना नहीं है, समाजवाद यह मांग करता है कि हम वस्तुओं के अलावा अपने आप को भी क्रान्ति का विषय बनाएं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चेतना में परिवर्तन लाने के लिए भौतिक परिवर्तन जरूरी है। दूसरी ओर, केवल उत्पादन की वृद्धि पर घ्यान देकर कोई क्रान्ति पूर्ण नहीं हो सकती। जहां राजनीति और अर्थव्यवस्था में संघर्ष पैदा हो जाए, वहां राजनीति को प्रधानता मिलनी चाहिए। इसी तरह सांस्कृतिक क्रान्ति उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी कि औद्योगिक क्रांति, क्योंकि वह ज्ञान की नई प्रणाली का सृजन करती है जो जनसाधारण को उद्योगीकरण मूल्यवत्ता का अनुभव कराती है। क्रान्ति का ध्येय सहकारिता के सिद्धांत पर आधारित समुदायिक भावना को साकार करना है। विचाराधारात्मक दृष्टि से शारीरिक श्रम की तुलना में बौद्धिक श्रम गौण है। अत: उसे धीरे-धीरे समाप्त कर देना चाहिए। कृपक प्रधान समाज राजनीतिक नियोजन के लिए सर्वथा उपयुक्त है। भारी उद्योग वांछनीय तो हैं, परन्तु बलपूर्वक औद्योगीकरण न तो समझदारी है और न वह द्वन्द्वात्मक दृष्टि से संभव है।

संकलन- एचएनपी सर्विस

Advertisement
एचएनपी सर्विस

Recent Posts

पं नेहरू के प्रति मेरे मन में पूरा सम्मानः शांता कुमार

धर्मशाला। पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री शांता कुमार ने कहा है कि पालमपुर नगर… Read More

6 months ago

मणिकर्ण में आग लगने से दो मंजिला मकान जलकर राख

कुल्लू। जिला कुल्लू के मणिकर्ण घाटी के गांव सरानाहुली में बुधवार रात को दो मंजिला… Read More

6 months ago

फासीवाद बनाम प्रगतिशील

फासीवाद और प्रगतिशील दोनों विपरीत विचारधाराएं हैं। एक घोर संकीर्णवादी है तो दूसरी समाज में… Read More

6 months ago

वाईब्रेंट विलेज नमग्या पहुंचे राज्यपाल, स्थानीय संस्कृति एवं आतिथ्य की सराहना की

राज्यपाल शिव प्रताप शुक्ल ने आज वाइब्रेंट विलेज कार्यक्रम के तहत किन्नौर जिला के सीमावर्ती… Read More

7 months ago

दुग्ध उत्पादकों के लिए जुमलेबाज ही साबित हुई सुक्खू सरकार

रामपुर। कांग्रेस ने चुनाव के दौरान 80 व 100 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से… Read More

11 months ago

खुलासाः मानव भारती विवि ने ही बनाई थीं हजारों फर्जी डिग्रियां

शिमला। मानव भारती निजी विश्वविद्यालय के नाम से जारी हुई फर्जी डिग्रियों में इसी विवि… Read More

11 months ago
Advertisement