मुझे ठीक से याद है जब धर्मशाला क्रिकेट स्टेडियम का भूमिपूजन हुआ था। तब मैं पत्रकार के नाते
लिए कैसे जमीन मिली, अब ये प्रश्न मर जाना चाहिए। इस दिशा में सुधीर शर्मा ने एक बेहतर प्रयास किया है। उन्होंने ईर्ष्या का नहीं रश्क(प्रतिस्पर्धा) का मार्ग चुना है। विश्व पैराग्लाइडिंग कप करवाकर उन्होंने अनुराग के समानांतर एक सकरामत्क लकीर खींचने की कोशिश की है। उनके प्रयास से भी हिमाचल का नाम हुआ है।
वास्तव में इसी तरह की प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता है और सियासत में तो यही होना चाहिए कि अगर आपके प्रतिद्वंद्वी ने कुछ बड़ा किया है तो आप उससे भी बड़ा करने की कोशिश करें। ऐसे में वो और बेहतर करेगा और अंततोगत्वा जनता का ही भला होगा। करीब 15 हज़ार की आबादी वाले धर्मशाला में आज जब किसी मैच के लिए दस हज़ार पर्यटक पहुंचते हैं तो निश्चित ही इसका लाभ स्थानीय लोगों को मिलता है। ऊना से लेकर मैकलोड़गंज तक तमाम छोटे बड़े होटल तीन दिन तक के लिए फुल हो जाते हैं। सड़क किनारे स्टोव रखकर चाय बेचने वाला भी जेब भर कर घर लौटता है। ये चीज़ें पहली नजर में मामूली लगती हैं, लेकिन अंत में आर्थिकी को संबल प्रदान करने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। प्रदेश के नेताओं को भी ऐसी ही बड़ी भूमिकाएं निभानी चाहिए। वर्ना वो कहते हैं न के…तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो? और हमी हम हैं तो क्या हम है?
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