आपका निर्णय जब असहाय व्यक्ति की रोटी छीनने लगे या उसकी जान पर बन आए तो समझ लेना चाहिए कि आप दुनिया के सबसे असफल व्यक्ति बनने की राह पर हैं। समय बहुत बलवान है, यहां अगले जन्म का इंतजार नहीं होता, बल्कि शीघ्र ही परिणाम सामने आने लगते हैं। आज टीवी पर जितनी बहसें हो रही हैं, भाजपा के लोग बहुत चालाकी से अपने ही पैसों के लिए बैंकों की कतार में खड़े 110 लोगों की मौत पर उठने वाले प्रश्नों को टाल जाते हैं या इसे देशहित में कुर्बानी के तौर पर जोड़ने लगते हैं। सभ्य समाज में तो दुश्मन की मौत पर भी आंसू बह जाते हैं, फिर क्या आज की राजनीति इतनी क्रूर हो गई है कि वह अपने निर्णयों से होने वाली मौतों पर कोई संवेदना तक जताने की जरूरत महसूस नहीं कर रही।
मैं पिछले कई दिनों से शिमला के माल व दूसरी जगहों पर बैंक जब भी जाता हूं तो वहां झारखंड, यूपी और बिहार के मजदूरों की भीड़ मिलती है। वे बेचारे या तो अपने खाते बंद करवा रहे हैं या अपने- अपने गांव के नजदीकी बैंकों में बदलवा रहे हैं। उनके चेहरों पर काम छिनने की गहन पीड़ा साफ दिखाई देती है।
पहले गरीब की जेब में यदि दो- चार हजार रुपये होते थे तो उसमें एक बोतल का नशे के बराबर खुमारी रहती थी। आज यदि गरीब मजदूरों को बड़ी जद्दोजहद के बाद दो हजार का नया नोट मिल जाता है तो वे उसे इस तरह जेब में लिए डरे सहमे घूमते रहते हैं जैसे उनके पास कोई खतरनाक चीज हो। वे डरतो हैं वह कि उसे एक बार में ही खर्चना पड़ेगा, क्योंकि दुकामदार से छुट्टा नहीं मिलेगा। अब दुकानदार 1500 का सामान लेने पर भी 500 वापिस नहीं लौटा रहे हैं, जबकि इन बेचारे गरीबों की दिनचर्या तो 100- 200 खर्च करके ही चलती है।
देखता हूं कि हम जब अपने निर्णयों से असफल होने लगते हैं तो अतीत को कोसते हैं और उसे गालियां देने लगते हैं। आजादी के बाद या पहले हमारे राजनेताओं ने समय और परिस्थितियों के मुताबिक काम किया, निर्णय लिए। उनसे गलतियां भी हुई होंगी। परन्तु यह देखकर आश्चर्य होता है कि वर्तमान राजनीति और उसके पैरोकार अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए बार- बार या तो अतीत में लौटते हैं या अपनी उस विरासत व परम्परा को गालियां देने लगते हैं। कोई उदाहरण ऐसा शालीनता से भरा नहीं मिलता कि यदि अतीत में कुछ गलत हुआ तो उसे हम सही करें और देश को बताएं कि उन गलतियों को हमने सुधार दिया है। वर्तमान राजनीति और साहित्य दोनों ही इस प्रवृत्ति के शिकार हुए दिखते हैं।
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