बादशाहत सबकी सलामत रहे ! हालांकि अब बादशाहों, राजाओं का जमाना नहीं रहा, लेकिन मेरा दिल नहीं मानता। ये आज भी होते हैं और विभिन्न रूपों में हर जगह मौजूद हैं। मन के राजा, मन के बादशाह, मन के शेर…। वन टू का फोर करने वालों से लेकर कर्ज उठाकर अय्याशी करने वालों तक।
बात कोई दो दशक पुरानी है। उस समय मैं जालंधर के एक अखबार में सब- एडिटरी करता था। रोज सहयोगी पत्रकार मित्र के साथ साइकिल पर पीछे बैठ कर कार्यालय जाता और रात को उसी तरह लौटता। दफ्तर में भीगी बिल्ली बना रहने वाला यह मित्र जब साइकिल चला रहा होता तो एकदम नए रूप में आ जाता। उसकी छाती चौड़ी हो जाती और आंखें रोब से मत्थे चढ़ आतीं। पैदल चल रहे लोगों और सुस्त रिक्शे वालों वह इस तरह फटकारते हुए निकलता जैसे सारी सड़क का वह अकेला वारिस है। साइकिल की रफ्तार से भी अधिक तीव्रता से वह ठेठ पंजाबी गालियां बिखेरता हुआ चलता, जिस कारण मुझे हर समय उसके साथ पिटने का भय बना रहता।
एक दिन फुर्सत में मैंने मित्र से पूछ ही लिया, “भाई! जब आप साइकिल चला रहे होते हैं तो राह चलतों को इस तरह गालियां क्यों देने लगते हो।”
मित्र ने जो तर्क दिया वह हैरान कर देने वाला था। उसने कहा, “गालियां देने से मेरा आत्मविश्वास बढ़ता है, एहसास होता है कि हम भी कुछ हैं…, किसी से कम नहीं हैं… दिल को इससे बड़ी राहत सी मिलती है।”
मेरा हैरान होना स्वाभाविक था। मेरे लिए यह एकदम नया ज्ञान था। ज्ञान भी क्या… बस ऐसे ही एक नया अनुभव सा था। मन ही मन कहा, “बच्चू ! जिस दिन किसी से पिट गया ना, सारी हेकड़ी छूमंतर हो जाएगी। …सुधर जाओगे।”
ऐसे ही समय बीतता गया। एक दिन अखबार की गाड़ी (ट्रक) द्वारा घर (शिमला) जाने का कार्यक्रम बना। आज गाड़ी बाया लुधियाना- चंडीगढ़ होते हुए जानी थी। रात करीब 12 बजे अखबार के बंडल लोड होने के बाद गाड़ी चली। चालक के साथ मैं, एक अन्य व्यक्ति और एक कंडक्टर (क्लीनर) बैठे थे। क्लीनर, एक 18- 19 वर्ष का दुबला सा लड़का, कमाल का गालीबाज। सामने पड़ने वाले वाहनों को देखते ही उसके मुंह से अश्लील गालियों की बौछार होने लगती। अक्सर खिड़की से आधा बाहर लटक कर वाहन चालकों को ललकारते हुए इस कदर मां- बहन की गालियां देने लगता कि मैं और मेरा सहयात्री मारे शरम के सीट में गड़ने को हो जाते। चालक चुपचाप मूछों ही मूछों में मुस्कुराता रहता।
शायद लुधियाना पहुंचने से पहले या बाद में रेलवे का एक फाटक पड़ा, सारा ट्रैफिक कुछ समय के लिए रोकना पड़ गया। लेकिन क्लीनर को यह कतई मंजूर नहीं था। वह ललकार भरते हुए तुरंत खिड़की से कूदा और तेजी से हाथ हवा में लहराते हुए फाटक की ओर बढ़ चला। ट्रक में बैठे ऊंघते हुए हमने देखा- …कुछ ही दूर सामने सड़क पर गाड़ियों की हेडलाइटों के कारण एक स्टेज जैसा बन गया है। …स्टेज पर क्लीनर बदहवास हवा में हाथ लहराते हुए सबको ललकार रहा है। इस कुव्यवस्था को वह तुरंत खड़े- खड़े हल कर देना चाहता है…।
कुछ ही क्षण में स्टेज पर सीन बदलता नजर आया। …अभिनय के लिए तीन- चार अन्य पात्र स्टेज की ओर बढ़े, …अरे, यह क्या? ये सभी एक साथ हीरो (क्लीनर) पर टूट पड़े…।
ट्रक में बैठे सहयात्री ने लगभग चीखते हुए कहा, “अरे, क्लीनर की पिटाई हो रही है…।”
हम दोनों ने एक साथ चालक की ओर प्रश्नवाचक नजरों से देखा। चालक ने अपना माथा पीटते हुए कहा, “इसदा आज दिन ई माड़ा ए, सबेर तों लैके तिज्जी बारी पिट चुकया ए।” (इसका आज दिन ही बुरा है, सबेरे से लेकर तीसरी बारी पिट चुका है।)
इसी बीच रेलगाड़ी लाइन क्रास कर गई और फाटक भी खुल गया। ट्रैफिक में हरकत शुरू हो गई। क्लीनर लौट आया था। किसी ने भी उससे बात नहीं की। कनखियों से उसकी हालत का जायजा लिया, ठुकाई ठीक ठाक हो रखी थी। ट्रक तेज गति से दौड़ रहा था, लेकिन क्लीनर बिल्कुल चुपचाप बैठा था। रह रह कर अपने शरीर को सहला लेता था।
ट्रक अभी पांच- सात किलोमीटर ही आगे बढ़ा होगा कि मेरी हैरानी का कोई ठिकाना नहीं रहा। क्लीनर फिर से अपने असली रूप में लौट आया। उसका वही खिड़की से आधा बाहर लटक कर अश्लील गालियां देना और हवा में हाथ लहराते हुए वाहन चालकों को ललकारना, सभी कुछ पहले जैसा। अभी- अभी हुई पिटाई की चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं। मैं हैरान मुंह बाये उसे देखता रह गया। चालक मूछों ही मूछों में मंद मंद मुस्करा रहा था।
उसी समय मेरा दिल किया कि जोर से क्लीनर की पीठ थपथपाऊं और कहूं, “शाब्बाश! तू ही है सड़क का असली बादशाह। तेरी बादशाहत सदा सलामत रहे।” लेकिन मैंने ऐसा किया कुछ नहीं।
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