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शीतकालीन सत्र सुर्खियां बटोरू उछलकूद में संपन्न

धर्मशाला। धर्मशाला के तपोवन में विधानसभा भवन एक बार फिर से सफेदहाथी साबित हो गया। इस बार भी विधानसभा का शीतकालीन सत्र सत्तापक्ष- विपक्ष की नोकझोंक, वाक्आउट और अखबारी सुर्खियां बटोरने की उछलकूद में संपन्न हो गया। जनता की मेहनत का लाखों रुपया पानी में बह गया। विधानसभा अध्यक्ष बृज बिहारी बुटेल भी बार- बार कह चुके हैं कि तपोवन में बनाया गया विधानसभा भवन कभी अपने उद्देश्यों पर खरा नहीं उतर पाया है।

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तपोवन में इस बार भी 19 से 23 दिसंबर तक आयोजित शीतकालीन सत्र में एक दिन भी सामान्य ढंग से कामकाज नहीं हो पाया। विपक्ष की गैरहाजिरी में कुछ समय प्रश्नकाल और कुछ बिलों को पारित करने की औपचारिकताएं मात्र हुईं। विपक्ष ने अखबारी सुर्खियां बटोरने के लिए खूब उछलकूद की। विधानसभा अध्यक्ष ने इसके लिए भाजपा के तीन विधायकों- सुरेश भारद्वाज, राजीव बिंदल और रणधीर शर्मा को सदन से निलंबित किया। उसके बाद निलंबन की वैधानिकता के नाम पर अंत तक ड्रामा चलता रहा।    

वास्तव में इस बार सत्ताधारी कांग्रेस और विपक्षी दल भाजपा दोनों का ही ध्यान शीतकालीन सत्र के बजाए सबसे बड़े जिला कांगड़ा की जनता को आकर्षित करने पर ही था। सत्ताधारी कांग्रेस अपनी सरकार के चार वर्ष पूरे होने पर धर्मशाला में आयोजित होने वाली महा रैली की तैयारियों में व्यस्त थी तो भाजपा प्रदेश सरकार के खिलाफ राज्यपाल को सौंपी जाने वाली चार्जशीट के प्रचार में जुटी थी। दोनों इवेंट एक ही दिन यानी 24 दिसंबर के लिए रखे गए हैं।       

करोड़ों की फिजूल खर्चीः तपोवन में सात करोड़ रुपये की लागत से निर्मित इस विधानसभा भवन का उद्घाटन 25 दिसंबर, 2006 को मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के हाथों हुआ था। पहले से ही कहा जाने लगा था कि यह फिजूलखर्ची केवल राजनीतिक लाभ के लिए की जा रही है और इसका आम जनता को कोई लाभ नहीं मिलेगा। अंततः हुआ भी वही। कांगड़ा- चंबा की जनता, जिसे लुभाने के लिए यह सारा तामझाम किया गया, ने भी धर्मशाला में शीतकालीन सत्र को लेकर कभी कोई उत्साह नहीं दिखाया। पिछले दस वर्षों में मुश्किल से 35- 40 दिन ही इस भवन का उपयोग हो पाया होगा, जबकि इसके रख रखाव पर ही सालाना लाखों रुपये खर्च आता है।

तपोवन में हर वर्ष शीतकालीन सत्र आयोजित करने पर 70 से 80 लाख रुपये खर्च आता है। मंत्रियों, विधायकों, अधिकारियों सहित पूरी सरकार को शिमला से धर्मशाला स्थानांतरित करना पड़ता है। चहेते मीडिया को भी साथ ढोना पड़ता है। बीते कुछ वर्षों के आकलन में पाया गया कि इस खर्चीली कवायद का वहां की जनता को कोई लाभ नहीं मिला। स्थानीय समस्याओं की सुनवाई के नाम पर मात्र औपचारिकताएं ही निभाई जाती रही हैं।

जम्मू- कश्मीर की नकलः हिमाचल प्रदेश में ऊपरी हिमाचल व निचला हिमाचल, शिमला व कांगड़ा तथा सेब व किन्नू के नाम पर खूब राजनीति होती रही है। धर्मशाला में शीतकालीन सत्र इसी दूरी को पाटने का एक असफल प्रयास था। इसके लिए जम्मू- कश्मीर का उदाहरण सामने रखा गया। इस बात को नजरंदाज किया गया कि इस मामले में हिमाचल प्रदेश और जम्मू- कश्मीर की परिस्थितियां समान नहीं हैं। जम्मू से श्रीनगर की दूरी बहुत अधिक है। श्रीनगर (कश्मीर) में बहुत बर्फ गिरती है और ठंड भी बहुत होती है। ऐसे में वहां दो विधानसभा परिसर होना गलत नहीं है। लेकिन शिमला और धर्मशाला में दूरी इतनी ज्यादा नहीं है और ठंड भी लगभग बराबर ही पड़ती है। जम्मू- कश्मीर में दो विधानसभा सत्र भौगोलिक परिस्थितिवश एक मजबूरी है, जबकि हिमाचल प्रदेश में यह मात्र राजनीतिक मजबूरी।

एचएनपी सर्विस

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