केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा के गृह नगर बिलासपुर के अस्पताल में दांतों का मामूली एक्सरे नहीं हो पाता, जबकि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री कौल सिंह ठाकुर के गृह नगर मंडी के अस्पताल में ईसीजी तक मयस्सर नहीं है। तो फिर हम खाक अव्वल हैं
इसमें कोई शक नहीं कि छोटे राज्यों में हिमाचल प्रदेश देश भर में विकास और तरक्की के रोल माडल के रूप में उभरा है। साल दर साल यहां सुविधाओं का विस्तार हुआ है और उसका लाभ जनता को मिला भी है। लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं है कि सब ठीक है। दरअसल आज भी प्रदेश में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लोकतंत्र में सड़क शिक्षा और स्वास्थ्य सरकारों की तीन सर्वोपरि प्राथमिकतायें रहती हैं। हाल ही में स्वास्थ्य मंत्री कौल सिंह ठाकुर ने कहा था कि प्रदेश स्वास्थ्य मानकों के लिहाज़ से देश में अव्वल है। प्रदेश में औसतन 2,990 लोगों के लिए एक स्वास्थ्य उप केन्द्र है, जबकि राष्ट्रीय औसत 5,615 है। इसी प्रकार प्रदेश में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र 12,921 लोंगों को सेवाएं उपलब्ध करवा रहा है और राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 34,641 है। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र 80,208 लोगों की चिकित्सा देखभाल कर रहा है, जबकि राष्ट्रीय औसत 1.72 लाख लोगों की है।
मानवशक्ति के मामले में भी प्रदेश में 3,703 लोगों के लिए एक चिकित्सक उपलब्ध है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 12,391 लोगों की है। हम स्वास्थ्य पर लगभग 26,000 रुपये प्रति व्यक्ति व्यय कर रहे हैं, जो देश में सर्वाधिक है। ये आंकड़े अभिभूत कर देने वाले हैं, लेकिन सिर्फ कागजों पर ही। ज़मीनी सच्चाई कुछ अलग है। दरअसल ये सब आंकड़ों की जादूगरी है। प्रदेश की जनसंख्या के लिहाज़ से देखा जाये तो हम उन पहले पांच राज्यों में हैं, जहां जनसंख्या सबसे कम है। ऐसे में यहां प्रतिव्यक्ति सेवाओं का अनुपात स्वाभाविक तौर पर कम ही होगा। हम सबसे अव्वल हैं… सुनने में ये जितना कर्णप्रिय लगता है, लेकिन हकीकत असल में उतनी की कड़वी है। असल हकीकत ये है कि स्वास्थ्य विभाग में इस समय सभी तरह के करीब छः हज़ार पद खाली चल रहे हैं। करीब बीस हज़ार की मानवशक्ति स्वास्थ्य विभाग में अपेक्षित है, जबकि उपलब्ध महज 14 हज़ार ही है। प्रदेश में डाक्टरों का दो हज़ार का कैडर है और तमाम प्रयासों के बावजूद चार सौ से अधिक पद खाली चल रहे हैं। हालांकि विभाग ने हर मंगलवार को ‘वाक् इन इंटरव्यू’ तक भी करवा कर देख लियै, लेकिन डाक्टरों की कमी से पार पाना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। इस प्रकार डाक्टरों के बाद सबसे ज्यादा कमी पैरा मेडिकल स्टाफ की है। प्रदेश के लिये 4200 से अधिक महिला और पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 1500 इस समय खाली चल रहे हैं। इसी तरह नर्सिंग स्टाफ का भी जबर्दस्त संकट है। स्टाफ नर्स के करीब 800 पद रिक्त पड़े हुए हैं। राज्य में दो मेडिकल कॉलेज अस्पताल, 12 जोनल अस्पताल, दो हजार से अधिक अन्य स्वास्थ्य संस्थान हैं। हिमाचल प्रदेश में 3,226 पंचायतें हैं, इनमें से 739 पंचायतों में हेल्थ सेन्टर नहीं है। प्रदेश के दुर्गम व पिछड़े जिले में शुमार चंबा जिला में 57 पंचायतों में कोई भी स्वास्थ्य संस्थान नहीं है। जिला में बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं का आलम यह है कि चुराह विधानसभा क्षेत्र में नड्डल पंचायत के लोगों को यदि इलाज की जरूरत हो तो उन्हें 22 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। इस पंचायत से 22 किलोमीटर दूर क्रियू में स्वास्थ्य उपकेंद्र है। वहां भी छोटी-मोटी बीमारियों जैसे बुखार, खांसी आदि का ही इलाज संभव है। दुर्गम पंचायतों में आज भी ग्रामीणों को स्वास्थ्य सुविधाओं के बिना तड़पना पड़ता है। इसी तरह बिलासपुर में 7 पंचायतें किसी भी तरह के स्वास्थ्य संस्थान से महरूम हैं। हमीरपुर जिला की बात की जाए तो इस जिले में 57 पंचायतें ऐसी हैं, जहां के निवासियों को एक भी स्वास्थ्य संस्थान की सुविधा नहीं है। राज्य में कांगड़ा जिला आबादी के लिहाज से सबसे बड़ा जिला है। यहां की 242 पंचायतों में एक भी हैल्थ सेंटर नहीं है। पिछड़े जिले सिरमौर में 59 पंचायतें, कुल्लू में 80, मंडी में 30, सोलन में 18, किन्नौर में 15 और ऊना में 83 पंचायतें भी इसी श्रेणी में हैं। इनमें से कई पंचायतें ऐसी हैं, जहां से नजदीकी स्वास्थ्य उपकेंद्र भी कई- कई किलोमीटर दूर हैं।
किन्नौर की सुन्नम पंचायत से नजदीकी स्वास्थ्य उपकेंद्र शलखर 22 किलोमीटर दूर है। कुल्लू की तलाड़ा पंचायत का नजदीकी स्वास्थ्य उपकेंद्र ब्रेहन 30 किलोमीटर दूर है। इसी तरह कुल्लू की ही पंचायत शुचैन, कशैंगड़ व फनाउटी के नजदीकी स्वास्थ्य उपकेंद्र बाहा, सिनवी क्रमश: 20, 25 व 32 किलोमीटर दूर हैं। सिरमौर जिला की वस्तोरी पंचायत से नजदीकी स्वास्थ्य उपकेंद्र डाल्ली 35 किलोमीटर दूर है।
... ये तो प्रत्यक्ष स्थिति है। परोक्ष रूप से स्वास्थ्य विभाग पर और भी जिम्मेदारियां हैं। प्रदेश में हर वर्ष साढ़े तीन हज़ार सड़क दुर्घटनाएं होती हैं। इन हादसों में हर साल 1500 लोग मारे जाते हैं और करीब दस हज़ार गंभीर रूप से घायल होते हैं। जाहिर हैं इन्हें संभालने की जिम्मेदारी भी स्वास्थ्य विभाग के पास है, लेकिन तल्ख़ हकीकत ये है कि सर्वाधिक सड़क हादसों वाला प्रदेश होने के वावजूद हिमाचल में एक भी ट्रॉमा सेंटर पूर्ण रूप से सक्रिय नहीं है। चार मंडलों में चार ट्रॉमा सेंटर लम्बे अरसे से मांगे जा रहे हैं, लेकिन कब मिलेंगे कोई नहीं जानता। इसी तरह प्रदेश में हर साल करीब छः हज़ार कैंसर के नए मरीज सामने आ रहे हैं। कैंसर से हर साल सैकड़ों मौतें हो रही हैं। फिर भी हम कह रहे हैं कि हम अव्वल हैं। अगर अव्वल हैं तो ये आंकड़े क्यों बढ़ रहे हैं? या एक स्वाभाविक प्रश्न है। स्वास्थ्य मंत्री खुद अब प्रदेश में नो टोबैको जेनरेशन की बात कर रहे हैं, लेकिन उक्त आंकड़ों को देखते हुए क्या यह संभव है? ये भी सोचना जरूरी है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा के गृह नगर बिलासपुर के अस्पताल में दांतों का मामूली एक्सरे नहीं हो पाता, जबकि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के गृह नगर मंडी के अस्पताल में ईसीजी तक मयस्सर नहीं है। तो फिर खाक हैं हम अव्वल! बेहतर होगा यदि हम फाइलों पर दर्ज आंकड़ों और ज़मीन पर उपलब्ध सुविधाओं का फर्क समझें। तब जो दावे होंगे वो हकीकी होंगे।