अंतर्राष्ट्रीय लवी मेले में इस बार विख्यात चौमुर्थी नस्ल के घोड़ों की आमद बहुत कम रही। इससे एक ओर जहां खरीददारों को निराश होना पड़ा, वहीं इस विलुप्त प्राय: नस्ल के भविष्य को लेकर भी चिंताएं बढ़ गई हैं। विशिष्ट नस्ल के इस बहुउपयोगी चौमुर्थी घोड़ों की संख्या पूरे विश्व में मात्र तीन हजार के आसपास बची है। इनमें से लगभग एक हजार हिमाचल प्रदेश में हैं। कुछ स्थानीय मान्यताएं एवं परंपराएं भी इन घोड़ों की नस्ल विस्तार में बाधक मानी जा रही हैं।
रामपुर बुशहर में आयोजित होने वाले लवी मेले से पूर्व हर वर्ष चार से छह नवंबर तक पशुपालन विभाग के माध्यम से अश्व प्रदर्शनी लगाई जाती है।यद्यपि प्रदर्शनी में चार अन्य भारतीय पारंपरिक नस्लों के घोड़े भी लाए जाते हैं, लेकिन केछ विशेष गुणों के कारण मुख्य आकर्षण चौमुर्थी घोड़े ही रहते हैं। चौमुर्थी को पहाड़ों का जहाज माना जाता है और इन्होंने भारतीय सेना से ले कर रायल आर्मी आफ भूटान में भी जगह बनाई है।
चौमुर्थी घोड़ों के वंशज तिब्बत सीमा की ऊंचाइयों पर पाए जाने वाले जंगली घोड़े माने जाते हैं। चौमुर्थी विश्व में लाहुल स्पीति जिले के पिन घाटी व इसके साथ लगते चंद क्षेत्रों में ही पाए जाते हैं। घाटी के लोगों के अनुसार इस प्राणी का उद्गम स्थल तिब्बत का छुमूर्त है। इसी कारण इन घोड़ों की नस्ल का नाम चौमुर्थी पड़ा। शीत मरू व बर्फीले रास्तों के लिए सुरक्षित एवं आरामदायक होने के कारण चौमुर्थी घोड़ों की मांग तिब्बत में भी अधिक है। चौमुर्थी संकरे रास्तों पर भी सवारी को सुरक्षित रखते हुए सरपट दौड़ सकता है। इसे अंधेरे में भी साफ दिखाई देता है। ऊंचाई पर, जहां वर्ष के अधिकतर समय बर्फ रहती है, वहां के लिए यह जानवर अत्यंत लाभदायक है। बर्फ में इसके खुर फिसलते नहीं है। चौमुर्थी का कद बारह से चौदह हाथ होता है और यह माईनस तीस डिग्री से प्लस तीस डिग्री तापमान में रह सकता है। इसमें भूखे रहने की क्षमता भी अन्य घोड़ों से मुकाबले काफी अधिक है। भारतीय सेना ने भी चौमुर्थी के लाजवाब खूबियों को देखते हुए फ्रांस से लाए जा रहे हनवैरियण नस्ल के घोड़ों के स्थान पर इन्हें प्रयोग में लाना आरंभ कर दिया है।
वर्ष 2002 में रायल आर्मी आफ भूटान ने भी चौमुर्थी की खूबियों से आकर्षित हो कर स्पीति घाटी में लरी स्थित चौमुर्थी प्रजनन केंद्र से दस घोड़े ले जा कर अपने बेड़े में शामिल किए। छोटे पैर, मजबूत कदकाठी, चौड़ा मुंह, खड़े कान वाला यह जानवर पीठ पर बैठी सवारी को वाहन में बैठे होने का आभास दिलाता है।
अंतर्राष्ट्रीय लवी मेले में हर वर्ष पिन व स्पीति घाटी से घोड़े लाए जाते हैं। इन घोड़ों की सबसे ज्यादा मांग उत्तरांचल के दूर दराजी क्षेत्रों में बसे लोगों को रहती है, क्योंकि वहां के कई दूर दराजी गांवों में आज भी मीलों पैदल चलना पड़ता है। वहां राशन और अन्य सामान ले जाने का माध्यम घोड़े ही हैं। लवी मेले से हर वर्ष उत्तरांचल को दो-अढ़ाई सौ घोड़े ले जाए जाते हैं। लेकिन इन घोड़ों से नस्ल विस्तार संभव नहीं है। पिन घाटी से बिक्री के लिए लाए जाने वाले सभी घोड़े घरेलू पद्दति से नसबंदी किए होते हैं। पिन घाटी के जिन गांवों में इस नस्ल का अस्तित्व है, वहां की देव परंपरा है कि बिना नसबंदी के घोड़ा बाहर न बेचा जाए। इसलिए घाटी के लोग वही घोड़ा बिक्री के लिए लाते हैं, जिसकी नसबंदी की हुई हो। पिन घाटी के ग्रामीण प्राचीन परंपरा का अनुसरण करते हुए अप्रैल-मई माह में एक साल के भीतर पैदा हुए चौमुर्थी घोड़े किसी एक स्थान पर लाते हैं। उनमें जो सबसे अच्छा हो और जिसमें चौमुर्थी के सभी गुण नजर आ रहे हों, उसे ही गांव में नस्ल विस्तार के लिए रखा जाता है। इस घोड़े को जैव कहा जाता है। बाकी घोड़ों की नसबंदी कर दी जाती है।
इस बार अश्व प्रदर्शनी में चौमुर्थी नस्ल के मात्र 81 घोड़े ही पहुंचे और सभी मात्र एक घंटे में बिक गए। चौमुर्थी के अनेक कद्रदानों को निराश ही लौटना पड़ा। बाहर से घोड़े खरीदने वालों की यह आम शिकायत थी कि यहां बिचौलियों की संख्या घोड़ों से भी ज्यादा हो गई है, जो रास्ते में ही खरीददारों को घेर लेते हैं। इससे घोड़ों की कीमत लगभग दुगनी हो गई।