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सवाल पूछते वीरान खंडहर…

सुबह- सुबह मन काफी उदास था। आखिर ऐसा हो भी तो क्यों नहीं, रात भर सपने में अपने गांव के घर को जो देखा था… हरे-भरे पहाड़ को जो देखा था… फलों से लदे आड़ू, माल्टा और अखरोट के पेड़ों ने जो ललचाया था…। बस फिर क्या, मन किया और भागने लगा अपने सपने के पीछे…

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शाम को बैग उठाया और सीधे अजमेरी गेट बस अड्डा पहुंच गया। त्रिपालीसैण जाने वाली बस एकदम खाली थी। अभी गर्मियां नहीं तो लोग शहर को वापस आ चुके हैं और पहाड़ों पर जाने वाले लोग कम ही थे। सुबह-सुबह सिलोली पुल (पैठाणी) पहुंच गया। बस, मेरा और इस बस का साथ यहीं तक था। बाजार में कई लोग जानने वाले मिल गए, सबसे नमस्ते हुई। एक चाय पी और फिर पैदल चढ़ाई चढ़ने लगा। आधे घंटे की चढ़ाई के बाद मैं अपने गांव में था। रास्ते में एक दो बुजुर्ग मिले.. उनके पैर छुए और आशीर्वाद लिया। नम आंखों से सबने मुझे गले लगा लिया.. कहने लगे, “कभी- कभी तो घर आ जाया करो, हमें भी तुम्हारी याद आती है। बच्चों को क्यों नहीं लाए?” बड़ों का आशीर्वाद लेकर मैं आगे बढ़ गया.. मुझे अपना घर देखने की बड़ी ललक थी। जैसे ही गांव में अपने घर के पास पहुंचा तो पहला घर एक दम खाली मिला। घर की दीवारें काली पड़ी थीं, जगह- जगह मकड़जाल लगे हुए थे। चौक में बड़ी- बड़ी घास उगी हुई थी। मन घबराया, फिर आगे बढ़ गया। अगला घर आया। मकान की छत गिर चुकी थी..दीवारें एक दम जर्जर थीं.. मानो अभी गिर पड़ें। फिर नजर चौक के किनारे लगे संतरे के पेड़ पर पड़ी। पेड़ सूख चुका था, नींबू के पेड़ से भी पत्तियां झड़ चुकी थीं।

घर- द्वार की हालत देखकर आंसू निकल पड़े। मन बहुत ही भावुक हो गया। घर टूटा था, फिर भी हिम्मत करके मैंने सीढ़ियां चढ़ीं और सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर जाकर बैठ गया। दिलो दिमाग सुन पड़ चुके थे। मन में गुस्सा भी था.. आखिर शहर जाकर क्या हासिल हुआ? आखिर शहर की चकाचौंध में मैं अपने पुरखों के घर को कैसे भूल गया? क्यों मैंने अपने पूर्वजों की निशानी को इस तरह से जर्जर होने के लिए छोड़ दिया.. अपने देवी- देवताओं को कैसे भूल गया? ये सोच ही रहा था कि अचानक मुझे लगा कि मैं अपने पूर्वजों की गोद में बैठा हुआ हूं, और वो प्यार से मेरा सिर सहला रहे हैं। कुछ देर तो अपने पुरखों की याद में खोया रहा, फिर थोड़ी देर बाद ये अहसास हुआ जैसे खाली टूटे पड़े इस घर की दीवारें मेरे जिस्म को खरोंच रही हों। मानो दीवारें मुझसे सवाल कर रही हों, ‘हमारा क्या कसूर था? हमें क्यों छोड़ दिया?’ खाली टूटे पड़े घर के सवालों से मेरे कान पक चुके थे। मैंने दोनों कानों पर अपने हाथ लगाए तो मुझे अपना बचपन दिखाई देने लगा। बचपन में हम सभी भाई अपने चौक में खेलते थे। कभी वॉलीबाल खेलते, कभी बैडमिंटन, कभी स्कूल से आकर धान कूटते। बचपन की वो सारी यादें फ्लैशबैक में सामने आ गईं। मैं अपने बालपन में ही खोया था कि तभी ऊपर से एक छिपकली आकर मेरे सामने गिरी। ऐसा लगा जैसे मैं गहरी नींद से जाग गया। मैं अपने अंदर उठ रहे सवालों से बाहर आ गया मानो ये छिपकली मुझे सदमे से बाहर निकालने के लिए आई हो।

थोड़ी देर बाद गांव के एक बुजुर्ग चाचा आए और मुझे अपने घर ले गए। घर में सिर्फ बुजुर्ग चाचा- चाची ही थे। चाची ने मुझे पानी दिया, चाचा के बच्चे भी शहर में रहते हैं और घर में सिर्फ ये दो बुजुर्ग हैं। इनको देखने वाला कोई नहीं। बच्चे सिर्फ छुट्टियों में ही घर आते हैं। चाचा के घर से चाय पीकर मैं आगे बढ़ा तो अगला घर भी खंडहर ही दिखा। अंदर खाली बर्तन बिखरे पड़े थे। पूरे गांव में पसरा सूनापन काटने को दौड़ रहा था। यानी दिल्ली में नींद में मैंने जो सपने देखे थे वो चकनाचूर हो चुके थे। पलायन ने पहाड़ों को खोखला कर दिया। एक मेरे ही गांव में नहीं, बल्की गांव- गांव की यही कहानी है। गांव के गांव खाली पड़े हैं। दूर- दूर तक एक आध ही इंसान नजर आता है। खेत बंजर हैं। घर भले ही खाली हैं, लेकिन शराब के ठेकों पर जबरदस्त भीड़ है। कुकरमुत्ते की तरह बाजार में ठेके हैं। नेताओं की मौज है। उन्होंने भले ही पहाड़ की जवानी और पानी को रोकने के लिए कोई काम नहीं किया, लेकिन अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए खूब कमा लिया। अवैध खनन, वृक्षों के कटान और ठेकों के लाइसेंस बांटकर नेता अमीर बन चुके हैं। काश नेतागण पलायन को रोकने की भी कोशिश करते तो आज गांव आबाद रहते, इस तरह से गुलदार और बंदर खेतों में नहीं घूमते। गांवों में शेष बचे लोगों की दशा देखकर भी रोना आया, लेकिन मैं करता भी तो क्या करता?

आखिर दिल को मजबूत किया, बैग उठाया और दिल्ली वापस आ गया। ..लेकिन इस बार आया हूं  तो दोबारा गांव जाने के लिए, देवभूमि के बाकी बेटों को भी साथ ले जाने के लिए ताकि एकबार फिर घरद्वार आबाद हो सके। दीवाली में भैला खेल सकें, ढोलक और थाली की थाप पर होली के गीत लग सकें।

..जय देवताओं की भूमि.. जय उत्तराखंड !

संजय गोदियाल

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