देहरादून (साहिया)। जौनसार के गांवों में 13 दिसंबर से मनाई जाने वाली पांच दिवसीय बूढ़ी दिवाली के लिए तैयारियां जोरों से शुरू हो गई है
जौनसार में महिलाएं घरों की साफ सफाई के बाद अब तरह-तरह के पारंपरिक व्यंजन बनाने में जुटी हुई हैं। खत बमटाड़ कोठा तारली गांव में तो महिलाओं ने खुले में कड़ाहियां चढ़ा रखी हैं। दीपावली के एक माह बाद मनाई जाने वाली बूढ़ी दिवाली का जश्न देखने लायक होता है। पंचायती आंगनों में पारंपरिक लोक गीतों पर सामूहिक नृत्य का नजारा देखते ही बनता है।
कोठा तारली निवासी पूनम, अमिता और मनीषा का कहना है कि बूढ़ी दिवाली की तैयारी दस दिन पहले से ही करनी पड़ती है। धान का चिवड़ा, अखरोट और गेहूं के व्यंजन बनाने में काफी समय लगता है। पर्वतीय क्षेत्र जौनसार व टिहरी जनपद के रवाईं जौनपुर में तो बूढ़ी दिवाली ही मनाने का रिवाज है। सामान्य दीपावली यहां बहुत कम मनाई जाती है। भले ही कुछ गांवों में देश के अन्य क्षेत्रों के साथ दीपावली मनाई हो, लेकिन बूढ़ी दिवाली का मजा ही कुछ और होता है। जौनसार में बूढ़ी दीपावली का जश्न 13 से 18 दिसंबर तक चलेगा। पांचवें दिन समापन पर पंचायती आंगन में रात भर सामूहिक नृत्य होगा है।
बूढ़ी दिवाली मनाने के लिए नौजवान रात भर आग का खरोड़ा जलाने के लिए लकडिय़ां लाते हैं। क्षेत्रीय भाषा में इसे होड़ कहते हैं। पूरी रात भेयल की लकड़ी से बने होले जलाकर होलियात निकालते हैं। आतिशबाजी का कम इस्तेमाल होता है। दीयों से घर सजाए जाते हैं। इस पर्व पर पौराणिक गीतों व हारूल का विशेष महत्व रहता है। ढोल दमाऊ की थाप से हारूल, झेंता, रासों नृत्य की शुरुआत होती है। इसके बाद हर परिवार सौ-सौ अखरोट लाकर गांव के स्याणा (बुजुर्ग) के पास जमा करते हैं। पूरे गांव से जमा अखरोटों को स्याणा प्रसाद के रूप में ऊंचे स्थान से फैंकता है। इसे भिरूड़ी कहा जाता है। इस प्रसाद को पाने के लिए काफी मारामारी होती है। इस दौरान एक-दूसरे को चिवड़ा आदि भी बांटे जाते हैं। बच्चों व महिलाओं के लिए अखरोट अलग से फैंके जाते हैं। पांचवें दिन समापन पर हर गांव में काठ का हिरण व हाथी बनाए जाते हंै। इस पर गांव के स्याणा (बुजुर्ग)को नचाया जाता है और उसके साथ ही त्यौहार का समापन हो जाता है।
बूढ़ी दिवाली के लिए घर-घर फैली चिवड़ा की खुशबू
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