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बागवानों को जख्म देकर मरहम लगाने की राजनीति

शिमला। छोटे एवं मझोले बागवानों को जख्म देने के बाद सरकार हरकत में आ गई। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने स्वीकार

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किया कि फलों से लदे सेब के वृक्षों पर कुल्हाड़ी चलाना कठोर कदम है। हाईकोर्ट ने वन भूमि को अवैध कब्जों से मुक्त कराने का आदेश दिया तो सरकारी अमला आरी-कुल्हाड़ी लेकर छोटे बागवानों पर पिल्ल पड़ गया। इस बात को नजरंदाज कर दिया गया कि यहां ग्रीन फालिंग पर प्रतिबंध भी अदालत ने ही लगा रखा है। वोट बैंक हाथ से खिसकता नजर आया तो एकाएक सरकार किसानों की हिमायत में खड़ी हो गई और घोषणा की कि अदालत में पुनर्विचार याचिका दायर की जाएगी। यानी जख्म देने के बाद मरहम लगाकर वाहवाही लूटने का प्रयास!
 

अदालत के फैसले की आड़ में सरकार की यह मुहिम कुछ उसी तरह है जैसे अवैध निर्माण हटाने के नाम पर हथौड़ा केवल गरीबों के ढारों और लोगों द्वारा घरों के साथ जरूरत के अनुसार किए मामूली निर्माणों पर ही बरसता है। जिन लोगों ने सरकारी भूमि पर कई-कई आलीशान कोठियां और शॉपिंग मॉल तक बना रखे हैं, उन पर कोई आंच नहीं आती।

यहां भी कुल्हाड़ी केवल उन छोटे बागवानों पर ही बरसी, जिन्होंने अपने गुजारे के लिए सरकारी भूमि पर 50-60 पौधे लगा रखे हैं। प्रभावशाली बागवानों, जिनमें राजनेता एवं नौकरशाह आदि भी शामिल हैं और जिन्होंने 50 से 150 बीघा तक अवैध कब्जे कर रखे हैं, के बागीचों में एक भी पेड़ नहीं काटा गया।

सीपीआईएम, किसान सभा, सेब उत्पादक संघ सहित विभिन्न संगठन बागीचे उजाड़ने की सरकारी मुहिम के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन छेड़े हुए हैं। जगह-जगह रैलियां, धरना, प्रदर्शन चल रहे हैं। आंदोलनकारियों ने अनेक जगह पौधे काटने आए सरकारी अमले को खदेड़ा भी और घोषणा है की कि सेब के पौधों को बचाने के लिए उत्तराखंड की तर्ज पर चिपको आंदोलन शुरू किया जाएगा। बागवानों में सरकार के प्रति बढ़ता आक्रोश देखकर सरकार को रक्षात्मक मुद्रा में आना पड़ गया, क्योंकि यह आक्रोश निकट भविष्य में होने जा रहे पंचायती राज से लेकर छात्र संघ के चुनावों पर असर डाल सकता है।

सरकारी भूमि पर किसानों के अवैध कब्जे कितने जायज और कितने नाजायज हैं, यह अलग बहस का विषय है। किसान वास्तव में अपना ही नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र की भूख मिटाने का काम करता है। इसके लिए उसका जिंदा रहना भी जरूरी है। प्रदेश में गरीब किसानों की साथ लगती सरकारी भूमि पर निर्भरता किसी से भी छिपी नहीं है। यहां 80% किसान सीमांत किसान की श्रेणी में हैं, जिन के पास एक एकड़ से भी कम भूमि है। बहुत से किसान परिवार भूमिहीन या एक बीघा व इस से भी कम भूमि के मालिक रह गए हैं। इसी कारण वर्ष 2002 में तत्कालीन भाजपा सरकार ने किसानों के सीमित मात्रा में अवैध कब्जे नियमित करने का फैसला लिया था और इसके लिए किसानों से बाकायदा आवेदन मांगे गए थे। यह बात अलग है कि बाद में सरकार ने अपने फैसले को लागू नहीं किया।

आज देश में कोई भी राज्य ऐसा नहीं जहां सरकारों के खिलाफ किसानों के उग्र आंदोलन नहीं हो रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वीकार किया है कि किसानों में केंद्र सरकार की छवि बहुत बिगड़ चुकी है। इसी कारण मॉनसून सत्र में भूमि अधिग्रहण बिल में विवादित संशोधन का मामला ठंडे बस्ते डाल देना पड़ा। लेकिन हिमाचल प्रदेश में सरकार ने सबक नहीं सीखा। किसानों के नाम पर राजनीति की जा रही है, लेकिन समस्या का ठोस समाधान नहीं किया जा रहा। कोई अध्यादेश या कानून में संशोधन की बात नहीं की जा रही। हो सकता है सरकार बागीचे काटने की मुहिम को कुछ समय के लिए ठंडे बस्ते में डाल दे, लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं, बल्कि तुच्छ राजनीति ही है।

एच. आनंद शर्मा

H. Anand Sharma is active in journalism since 1988. During this period he worked in AIR Shimla, daily Punjab Kesari, Dainik Divya Himachal, daily Amar Ujala and a fortnightly magazine Janpaksh mail in various positions in field and desk. Since September 2011, he is operating himnewspost.com a news portal from Shimla (HP).

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