देहरादून। चंपावत जिले के तहत खेतीखान क्षेत्र में फिर से सेब की बहार लौटने की उम्मीद है। क्षेत्र में सेब की नई बौनी प्रजातियों पर चल रही रिसर्च सफल हो गई है। यहां दो वर्ष पूर्व नीदरलैंड से लाकर रोपे गए विभिन्न बौनी प्रजातियों के 80 पौधे इस समय फलों से लकदक हैं और वैज्ञानिकों ने ट्रायल को सफल करार दिया है।
उल्लेखनीय है कि खेतीखान क्षेत्र में कुछ दशक पूर्व तक सेब की अच्छी पैदावार होती थी। यह पूरा क्षेत्र सेब बेल्ट के नाम से जाना जाता था। लेकिन बाद में जलवायु परिवर्तन के चलते पौधों की चिलिंग रिक्वायरमेंट पूरी नहीं हो पाने के कारण बागीचे उजड़ते चले गए। बागवानों ने भी सेब को छोड़ कर संतरे और माल्टे की बागवानी शुरू की, लेकिन इसमें वह मुनाफा नहीं था।
जलवायु परिवर्तन पर कार्य कर रही पूना की वायफ डिवेल्पमेंट रिसर्च फाउंडेशन ने दो वर्ष पूर्व खेतीखान में नीदरलैंड से मंगाए गए सेब के 80 पौधों का रोपण किया था। इस समय इन पौधों में पांच- पांच किलो तक फल लगे हैं। वायफ के परियोजना अधिकारी डॉ. मनोज रतूड़ी ने बताया कि इस क्षेत्र में नई किस्मों के सेब के बागीचों की प्रबल संभावनाएं हैं। कुछ ही वर्षों में यह क्षेत्र फिर से सेब बेल्ट की अपनी पूर्व प्रतिष्ठा को प्राप्त कर लेगा। क्षेत्र में ही सेब की पौध तैयार कर बागवानों को वितरित की जाएगी। बागवानों में इसे लेकर भारी उत्साह है।
उन्होंने बताया कि खेतीखान में सेब की सनलाइट, गोल्डलेन, रेड लेन और मून लाइट आदि प्रजातियां उपयुक्त हैं। इनके लिए सर्दियों में मात्र तीन सौ घंटे की ही चिलिंग की अवश्यकता रहती है, जबकि परंपरागत प्रजातियों को 1500 से 1700 घंटे तक चिलिंग (7 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान) की आवश्यकता पड़ती है।
उन्होंने बताया कि नाबार्ड के साथ मिलकर क्षेत्र में 20 किसानों के खेतों में ट्रायल किया जाएगा। खेतीखान नर्सरी में ही नई पौध तैयार कर किसानों को पौधे उपलब्ध कराए जाएंगे। समान जलवायु वाले अन्य जगहों पर भी इसे लेकर शोध किया जाएगा। डॉ. मनोज रतूड़ी ने बताया कि इन प्रजातियों के पौध एक मीटर की दूरी पर लगाए जाते हैं। परंपरागत प्रजातियों के एक हेक्टेयर में 400 पौधे ही लगाए जा सकते हैं, जबकि नई किस्मों के 6500 पौध रोपे जा सकते हैं। एक पौधे से औसतन 20 किलो तक उत्पादन हो सकता है। यह पौधे दूसरे ही वर्ष से फल देने लगते हैं। पौधों की ऊंचाई छह फुट तक होती है।