देहरादून। सूबे की हरीश सरकार बेचैन है, और ये बेचैनी कैबिनेट के उन फैसलों को लेकर है जिन पर अभी तक अमल
उत्तराखंड सरकार ने सियासी फायदा लेने के लिए आनन-फानन में निर्णय तो ले लिए और उस पर मीडिया में प्रचार भी खूब पाया, इन्हें अमलीजामा पहनाने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। अब चलाचली के इस दौर में सरकार को हाथ-पांव मारने पड़ रहे हैं।
सवाल दरअसल उस व्यवस्था का है, जो सरकारी कामकाज में परिभाषित है। साफ है कि यदि फैसले हवा में झूल रहे हैं तो इन्हें लेकर निश्चित प्रक्रिया अमल में नहीं लाई गई है। यानी सरकार अपने ही बुने जाल में फंसी है। सूत्रों की मानें तो मुख्यमंत्री हरीश रावत की अध्यक्षता में अब तक कैबिनेट की 26 बैठकें हो चुकी हैं। इन बैठकों में 433 प्रस्तावों पर निर्णय लिया गया। कैबिनेट की 26वीं बैठक दो मई को हरिद्वार में हुई। कायदे से कैबिनेट के तकरीबन नब्बे फीसदी फैसलों के शासनादेश अब तक जारी हो जाने चाहिए थे। लेकिन हकीकत यह है कि करीब 25 फीसदी फैसलों के संबंधित विभागों द्वारा शासनादेश ही जारी नहीं किए गए। अब मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट हैरानी जता रहे हैं कि आखिर उनके निर्णयों पर अमल क्यों नहीं हुआ?
जानकारों के अनुसार वास्तव में ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि कैबिनेट बैठकों को लेकर जो व्यवस्था है, उसका अक्षरश: अनुपालन नहीं हो रहा है। व्यवस्था यह है कि कैबिनेट में प्रस्ताव लाने से पहले संबंधित विभाग उसके विधिक, वित्तीय एवं अन्य पहलुओं की परख करता है। गहन निरीक्षण-परीक्षण या यूं कहें कि ठोक बजाकर प्रस्ताव कैबिनेट के एजेंडे में शामिल किया जाता है। गोपन विभाग कैबिनेट की बैठक से 24 घंटे पहले सील बंद लिफाफे में एजेंडा मंत्रियों को भेज देता है ताकि वे अपने विभागों से संबंधित मुद्दों की जांच-पड़ताल कर लें और बैठक में पूरे होमवर्क के साथ प्रस्तुत हों। वास्तव में क्या ऐसा हो पा रहा है? कुछ मंत्रियों के पास तो एजेंडे का लिफाफा खोलने तक की फुरसत नहीं हैं। यदि सबकुछ कायदे से चल रहा होता तो मुख्य सचिव एन. रविशंकर को पिछले दिनों सभी प्रमुख सचिवों, सचिवों और प्रभारी सचिवों को ये फरमान जारी नहीं करना पड़ता कि वे कैबिनेट बैठकों में प्रस्ताव भेजने से पहले उसके सभी पहलुओं की कायदे से जांच-पड़ताल कर लें। सच्चाई यह है कि यहां मुख्यमंत्री कोई घोषणा कर देते हैं और उस घोषणा को पूरा करने के लिये आनन-फानन में कैबिनेट नोट तैयार करा दिया जाता है और जब उस फैसले पर अमल की बारी आती है तो वह लटक जाता है। समीक्षा बैठक में मुखिया चाहे जो नसीहत पिलाएं, लेकिन जब तक व्यवस्था दुरुस्त नहीं होगी, फैसले हवा में ही झूलते रहेंगे।