अस्मिता और पहचान की राजनीति की एक सीमा होती है। दलित अस्मिता, आदिवासी अस्मिता, अल्पसंख्यक अस्मिता आन्दोलन की जरुरत तो है, लेकिन इंसान को अस्मिता के अलावा भी बहुत कुछ चाहिए होता है। दलित, आदिवासी, ओबीसी, अल्पसंख्यक को रोजगार, शिक्षा, तरक्की की भी जरुरत है।
अस्मितावादी आन्दोलनों के साथ मेरे दोस्ताना सम्बन्ध रहे हैं। मुझे यह देख कर बेचैनी होती है कि इन आंदोलनों में कुछ लोग अतिवादी हो गए हैं। ये लोग अपनी समूह अस्मिता के अलावा दूसरी अस्मिता और पहचानों से नफरत करने लगते हैं। यहां तक कि मैंने कुछ दलित अस्मितावादियों में जाटव कार्यकर्ताओं को बाल्मीकियों के खिलाफ लिखते देखा है।
अनेक कार्यकर्ता इतिहास के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। व्हाट्सएप पर गलत जानकारियों से भरे मेसेज पढ़कर उनकी नफरत और गहरी हो गयी है। जाति मुक्त और साम्प्रदायिकता मुक्त समाज बनाने की जगह जातिगत घृणा फैलाई जा रही है। गांधी के खिलाफ भयंकर माहौल बनाया जा रहा है।
पिछले दिनों भंवर मेघवंशी भाई बता रहे थे कि गांधी की मृत्यु के बाद अम्बेडकर साहब वहां पहुंच गए और आधी रात तक वहीं गांधीजी के शव के पास बैठे रहे। अंबेडकर साहब गांधी की शवयात्रा में पैदल चल कर गए, लेकिन आज संघी गांधी के खिलाफ कम जहर उगलते हैं तथा खुद को अम्बेडकरवादी कहलाने वाले गांधी के खिलाफ ज्यादा घृणा फैला रहे हैं। बाद में कई अम्बेडकरवादी जाकर भाजपा और शिवसेना में शामिल हो जाते हैं। अम्बेडकर जातिनाश चाहते थे, लेकिन कुछ लोगों ने अम्बेडकर को किसी खास जाति की दुकान में बिकने वाले माल की तरह अपना रखा है।
मेरा जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ, क्या यह मेरा अपराध है? क्या इसलिए मैं अम्बेडकरवादी नहीं हो सकता, क्योंकि मैं किसी खास जाति में पैदा नहीं हुआ? कुछ लोग तो इतना जहरीला लिख रहे हैं और सारी जिन्दगी आदिवासियों दलितों और अल्पसंख्यकों की समानता के लिए काम करने वाले और कुर्बानियां देने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की जातियों के कारण उनकी आलोचना कर रहे हैं। यह तो जातिवाद को बढ़ाने वाली हरकत ही है।
देश भर के वंचित और शोषित लोगों की समस्याओं को समझना और उनके आन्दोलनों की आपसी एकता एक जरूरी काम है, लेकिन ऐसा करने की बजाय अगर आप नफरत फैलाने को फायदे का काम समझ रहे हैं, तो आप अपने न्याय की लड़ाई को ही नुकसान पहुचाएंगे।