दीपू के लच्छन बचपन से ही ठीक नहीं थे। तायी कहतीं- “कहीं कनस्तर भी बज रहा हो तो दीपू सबसे पहले तमाशा देखने वहां पहुंच जाता। तूरियों की संगत में रहकर पूरा तूरी ही बन गया है।”
ताई चाहती थीं कि दीपू पढ़ लिखकर कुछ बन जाए। उन्होंने जैसे तैसे मारपीट, डांट फटकार कर उसे दसवीं कक्षा तक तो पहुंचा दिया, लेकिन वहां आधे से ही भाग निकला। ताई जब भी मिलतीं अपने दीपू की शिकायतों का पिटारा खोल कर बैठ जातीं। ताई जितना दीपू को डांटती फटकारती, उतना ही प्यार भी उससे करतीं। आखिर वही तो उसके बुढ़ापे का सहारा था। शायद इसीलिए नटखट दीपू पर डांट फटकार का कोई असर नहीं पड़ता।
मैंने इस बार दिवाली की छुट्टियों में गांव जाने का कार्यक्रम बनाया। मुनिया और बंटू दोनों खुश थे। पत्नी सुधा ने तैयारियां कीं और शाम होने से पहले ही हम गांव पहुंच गए। हम सभी को ताई से मिलने का बेसब्री से इंतजार था। वह हमें देखते ही हमेशा खुशी से झूम उठती हैं और लपक कर सभी को गले लगा लेती हैं।
लेकिन इस बार तो सारा माहौल ही बदला हुआ था। घर में तो कोहराम मचा था। ताई हमें देखते ही फूट पड़ीं। वही रोना धोना- दीपू- दीपू- दीपू और दीपू..।
परंतु इस बार मामला वास्तव में ही गंभीर था। मुझे भी गुस्सा आ गया। घर में पत्नी के बच्चा होने को था, लेकिन दीपू पिछले चार दिनों से कहीं गायब है। ताई ने कहां- कहां नहीं पूछा, लेकिन उसका कोई पता नहीं चला। ताई रोते-रोते बोलीं- “ऐसे समय में पत्नी के पास रहता तो उसे भी ढाढस बंधता। बहू भी क्या सोचती होगी कि कैसे पूत को जन्म दिया है, जिसे घर की कोई फिक्र ही नहीं। ऐसे कपूत से तो बे-औलाद ही भले। भगवान भी पता नहीं पिछले किन करमों के फल भुगतवा रहा है।”
ताई ने बताया कि आज सुबह ही बहु के बच्चा हुआ है । रोते हुए बोलीं, “एक बेटे का बाप हो गया है नालायक, लेकिन शर्म डक्के की नहीं है। मैं कब तक संभालती रहूंगी उसका परिवार। मेरा बुढ़ापा नर्क बना दिया है इसने।”
परेशान सुधा तुरंत स्थिति को संभालने के लिए बहु के कमरे में चली गई। बच्चे भी ‘बेबी को देखने’ के लिए मचलने लगे। हालांकि, ताई को पोता होने की खुशी है, लेकिन बेटे की बेहयायी में यह खुशी तार तार हुए जा रही थी।
ताई की शिकायतों से ही पता चला कि दीपू इस दौरान करियालची हो गया है। किसी करियाला पार्टी से जुड़ कर जगह- जगह नाचता फिरता है। कोई एक ठिकाना हो तो पता भी चले।
ताई बोलीं- बेटा अब तू आ गया है… तू ही ढूंढकर ला उस नालायक को। खूब जूते मारना ताकि हमेशा याद रहे उसे। मेरी तो वह कोई परवाह ही नहीं करता।”
मेरे लिए ताई का आग्रह टालना मुश्किल है। इस दुष्ट को ढूंढने के लिए अब मुझे ही कुछ करना होगा। सुधा के चेहरे पर गुस्सा है। जैसे कह रही हो, ‘यही दिवाली मनाने लाए थे यहां…!’
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मैं दीपू की टोह लेने के लिए गांव में टहलने निकला। हर तरफ दिवाली की तैयारियां जोरों पर थीं। घरों में साफ सफाई और रंग रोगन चल रहा था। बच्चों के गिरोह दिवाली के लिए खरीदे गए पटाखे आज ही फूंक देने के लिए उतावले हैं, जबकि बुजुर्ग उन्हें ऐसा करने से रोक रहे हैं। दोनों पक्षों में द्वंद्व छिड़ा है। बच्चे पटाखों के लिए जिद कर रहे हैं तो बुजुर्ग उन्हें किसी तरह टालने की कोशिश में लगे हैं। कहते हैं, “सारे पटाखे आपके लिए ही लाए गए हैं, दिवाली के दिन खूब मौज करना। अभी चलाओगे तो दिवाली को क्या करोगे?” लेकिन बच्चे फिर- फिर पटाखे मांग रहे हैं। कहीं- कहीं से पटाखे चलने की आवाजें भी आ रही हैं।
मेरे पूछने पर दर्जी काका बोले, “अरे बेटा, कार्तिक के महीने कुत्तों और करियालचियों का भी कोई ठिकाना होता है? पगलाए से जगह-जगह घूमते रहते हैं। जहां की भी साई (बुकिंग) मिली, वहीं करियाला नाचने चले गए।”
लाला बल्कारू दुकान में बैठे- बैठे ही बोला, “भाई, मैंने तो ताई को कई बार समझाया कि ज्यादा लाड प्यार ठीक नहीं, लड़का हाथ से निकलता जा रहा है। उस वक्त मेरी बात उन्हें बुरी लगती थी। अब पछता रही हैं। भाई, मेरी बात याद रखना, ये लड़का ताई को खून के आंसू रुला के रहेगा।”
इसी दौरान सामने से दीपू का हमउम्र साथी अशोकी आता दिखा। आते ही मुझे प्रणाम किया और खबर देते हुए बोला, “आज रात को दीपू की पार्टी का करियाला बड़ागांव में है। वह वहीं मिल सकता है।”
बड़ागांव में.. ? वह तो बहुत दूर है। डेढ़- दो घंटे का पैदल रास्ता। वहां के लिए तो अभी से चलना पड़ेगा। बहुत झुंझलाहट हुई। मन ही मन बोला, ‘बच्चू खूब फंसाया तूने। हाथ लगते ही ऐसे खड़काउंगा कि तू भी याद करेगा।’
मैंने कुछ तैयारी की और चल दिया बड़ागांव की ओर। वहां पहुंचने तक काफी अंधेरा हो गया था। करियाला शुरू होने ही वाला था। बीच मैदान में बलराज (बड़ा अलाव) जल रहा था। ढोल, नगाड़े और हारमोनियम वाले अपनी जगह विराजमान हो चुके थे। सिर तक पट्टू ओढ़े मैं भी दर्शकों के बीच छिपते हुए कहीं दुबक गया।
अनायास ही बचपन की यादें ताजा हो गईं। कभी हम भी करियाला देखने रात को मीलों रास्ता नाप लेते थे। पता चलने पर अगले दिन गुस्से में बापू हमसे दिन भर खूब काम कराते। दिल करता वहीं सो जाएं, लेकिन सो नहीं सकते। बिना इजाजत करियाला देखने की हमारी यही सजा होती और इजाजत कभी मिलती नहीं थी। बड़ी मुद्दत के बाद आज करियाला देखने को मिल रहा है।
इसी बीच बजंत्रियों ने एक विशेष चिरपरिचित सी धुन बजानी शुरू कर दी तो दर्शक चौकन्ने हो गए कि करियाला शुरू होने वाला है। …वही पुरानी रीत- सबसे पहले चंद्रावली आई और अखाड़े में गोल घूमती- घूमती लौट गई। उसके बाद भगवान कृष्ण का दरबार सजा। सखियां (गोपियां) कृष्ण बने बालक के सामने कीर्तन- नर्तन करने लगीं। सखी का रूप धारण किए दीपू को मैं देखते ही पहचान गया। खूबसूरत, एकदम लड़की लग रहा था। कमाल का नाचता है और गाता भी खूब है। भूल ही गया कि इस दुष्ट को यहां से घसीटते हुए घर ले जाने के इरादे से आया हूं।
उसके बाद साधु का स्वांग शुरू हुआ। एक विशिष्ट लोकधुन के साथ किसी ने जोर से गाना शुरू किया- सा धो की न ग रि या… बसे भी न कोई रे रामा…, जो रे बसे सो साधु हो ए..। सा धो की नगरिया…..
ढोल बज रहा है—ढाकी-टिकी ढाकी-टिकी, ढाकी-टिकी, ढाकी-टिकी, ढाकी-टिकी। गाना चल रहा है—सा धो की न ग रि या…, बसे भी न कोई रे रामा…
अचानक जगह जगह से कई तरह के जटाधारी, मुखौटाधारी साधु चीखते,चिल्लाते नाचते पहुंच गए। दर्शकों के बीच से सीटियों और हो हो हा हा हा की आवाजें गूंजने लगीं। खूब हंसी, मजाक, व्यंग्य, तंज और दर्शकों के ठहाके…। जटाधारी साधु के वेश में दीपू ने भी खूब कलाकारी दिखाई, दर्शक हंस हंसकर लोटपोट हो गए।
उसके बाद नट-नटणी, साहब- मेम, लंबरदार आदि के स्वांग हुए। फरमाइशी गीतों और शेर- ओ शायरी का सिलसिला भी चलता रहा, नोट बरसते रहे।
कलाकार- ओम् जै जै जगदंबे-अंबे तैं खूब रचाई खेल्ल….।
ढोल- ढा ढा ढा ढा ढा ढम ढमाढम ढम।
कलाकार- ये पांच रूपये फलां गांव से फलाना राम शर्मा जी हमें इनाम देते हैं, उन्हां दी बधाओ बेल्ल….।
ढोल- ढा ढा ढा ढा ढा ढम ढमाढम ढम।
कलाकार- इसके साथ ही उन्होंने एक नाटी की फरमाइश की है—ओ लाड़ी शान्ता आधी बायीं री सकीबी..।
फिर कुछ देर तक यह नाटी गाई जाती है, जब तक उनके पास कोई दूसरी फरमाइश ना आ जाए।
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करियाला का आनंद उठाते, पिछली बातें याद करते- करते रात काफी बीत चुकी थी। सोचा अब करियालचियों के डेरे (मेकअप रूम) में जाकर दीपु से बात की जाए। कुछ कलाकार अगले स्वांग के लिए कास्ट्यूम सेट कर रहे थे तो कुछ कलाकार थोड़ा आराम करने के लिए बीड़ी पी रहे थे। दीपू भी बैठा था। मुझे देखते ही जैसे उचक गया, बोला- “अरे, भाईजी आप?” वह हैरान परेशान लगा। “आप कब आए भाईजी, घर में सब ठीकठाक तो है?”
उसकी परेशानी दूर करते हुए मैंने मुस्कुराते हुए कहा– घर में सब कुशल मंगल है, एक बेटे का बाप बन गया है नालायक! यही खबर देने के लिए आया था। मैंने उसकी पीठ थपथपा कर बधाई दी तो वह खुशी के मारे लिपट गया और फूट- फूट कर रो पड़ा। साथी कलाकारों ने भी उसे बधाइयां दीं। एक कलाकार बोला- “तू तो यूं ही घबरा रहा था… मैंने कहा था ना कि सब ठीक हो जाएगा। क्या करें दीपू, हम लोगों की जिंदगी ऐसे ही चलती है…।” “हां, मास्टर जी!” दीपु ने हाथ जोड़कर कहा।
इसके साथ ही मास्टर जी, जो करियाला टीम के लीडर हैं, कलाकारों को आवश्यक निर्देश देने लगे। अखाड़े से कलाकार लौटते और उनका स्थान लेने के लिए नए पहुंच जाते। इसी बीच कहीं से एक थाली में पांच- सात चाय के गिलास पहुंच गए और हम लोग चाय पीने लगे।
चाय के बाद मास्टर जी की आवाज कड़की, “बेटा दीपू! तैयार हो जा, बाप बनने की खुशी में लगा दे गंगियों, झूरियों, नाटियों की बरसात…लूट ले अखाड़ा..। उसके बाद तुझे जल्दी घर को भी निकलना है।” चाय पीकर दीपू के शरीर में चुस्ती आ गई और वह आदेश का पालन करने के लिए तैयार…।
दीपू इस बार ठेठ पहाड़ी गबरू की भूमिका में था, सफेद कुर्ता- पाजामा, चमचम करती सदरी, सिर पर हिमाचली टोपी, जिस पर परंपरागत फूलों की कलियां झूल रही थीं। चेहरे पर चमक तो उसके बिना मेकअप के भी रहती है। दो अन्य कलाकार खूबसूरत लड़कियों के वेश में थे।
मैं भी डेरे से निकल कर दर्शकों के बीच जाकर बैठ गया। दीपू के अखाड़े में आते ही दर्शकों में जैसे रोमांच की लहर दौड़ गई। मुझे अनुमान नहीं था कि दीपू इस बीच एक सधा हुआ कलाकार बन गया है। फरमाइशी गंगियों, गीतों पर नोटों की बरसात होने लगी। अखाड़े में जैसे जान आ गई है। फरमाइशी गंगियों पर छोकरे खूब सीटियां बजा रहे हैं। लिख-लिख कर गंगियां गवाने वालों के गुट बन गए हैं। गंगियों में ही सवाल- जवाब हैं। उसी तरह जैसे शेर-ओ- शायरी में होते हैं। पांच रुपये या दस रुपये का नोट दिखा कर कलाकार को बुलाया जाता है और इसके साथ ही उसे गंगी गाने की फरमाइश की जाती है।
ओम जय जय जगदंबे अंबे तैं खूब रचाई खेल्ल……. ढाक ढकाढक ढाक—-
ये पांच रुपये का नोट परसराम ठाकुर कंडा गांव के हमें खुश होकर देते हैं, उन्ना दी बधाए बेल्ल.. ……. ढाक ढकाढक ढाक….
इसके साथ ही उन्होंने एक गंगी की परमाइश की है….
…….
मैं तमाशे में लीन हूं। मनभावन नाटी चल रही है। इसी बीच देखता हूं कि नाचते- नाचते दीपू दर्शकों के बीच में से निकल कर मेरी तरफ आ रहा है। …क्या करना चाहता है यह? पास पहुंचते ही उसने हाथ जोड़े और बाजू पकड़ कर मुझे अखाड़े की ओर घसीटने लगा। अरे, क्या कर रहा है…पागल हो गया है क्या ??? नहीं, नहीं मैं नहीं आऊंगा। उसके हाथ से मुक्त होने की कोशिश करता हूं, लेकिन वो नहीं माना। …और अगले ही क्षण मैंने अपने आप को अखाड़े में नाचते हुए पाया। दीपू गा रहा है और मैं अन्य कलाकारों के साथ झूम- झूम कर टेढ़ा हुआ जा रहा हूं।
थोड़ी ही देर बाद मास्टर जी का संदेश पाकर दीपू ने मुझसे कहा, “भाईजी चलते हैं।”
मैं भी उसके साथ डेरे की ओर चल दिया। वहां मास्टर जी बोले, शाब्बाश बेटा। तैंने मेरी लाज रख ली। अब जल्दी से घर की ओर निकल। परिवार का ख्याल रखना। अम्मा जी को मेरी ओर से नमस्ते कहना।
दीपू बिजली की फुर्ती से तैयार हुआ। उसे मुझसे भी ज्यादा जल्दी थी घर लौटने की। अभी सुबह नहीं हुई थी। हम टार्च की रोशनी में सरपट घर की ओर निकल पड़े।
मेरी आंखों पर नींद भारी पड़ने लगी थी। दीपू सुनाए जा रहा था, “क्या करें भाईजी, कई बार बड़ी परेशानी में फंस जाते हैं। एक कलाकार को फिर से खांसी का दौरा पड़ गया, मजबूरन उसे घर बैठना पड़ा। एक के घर में बहन की शादी है, उसे भी छुट्टी देनी पड़ी। मास्टर जी ने हाथ जोड़ कर मुझसे कहा- दीपू! पार्टी की इज्जत का सवाल है, भगवान तेरे साथ है, घर में सब ठीक ठाक होगा। इस बार पार्टी की नाक रखने के लिए रुक जा।’ भाईजी, मास्टर जी मेरे गुरू हैं। इनकी बात आसानी से नहीं टाल सकता। घर में अम्मा और घरवाली बहुत नाराज होंगे, लेकिन क्या करें कई बार बड़ी परेशानी में फंस जाते हैं।” मैं नींद और थकान के कारण केवल हां- हूं ही करता रहा।
हम काफी दूर निकल गए थे, लेकिन करियाले के गीतों और ढोल की धमक- गमक अभी भी हमारा पीछा कर रही थी। इसी बीच एक अलग सांकेतिक धुन बजनी शुरू हुई तो दीपू बोल पड़ा, “अब करियाला समाप्त होने को आ गया। पौ भी फटने लगी है।”
दूर से ही हमने महसूस किया कि नाच गान के अंतिम दौर में अधिकांश कलाकार अखाड़े में पहुंच गए है। तमाशे का अंतिम गीत शुरू हो गया, ‘….सवेरे वाल्ली गाड़ी से चल्ले जाएंगे…सवेरे वाल्ली गाड़ी से चल्ले जाएंगे, कुछ ले के जाएंगे, कुछ दे के जाएंगे, सवेरे वाल्ली गाड़ी से चल्ले जाएंगे….।’
दीपू रुक गया। आकाश की ओर हाथ जोड़कर देवताओं को आज की सफलता के लिए आभार जताया और आगे भी इसी तरह साथ देने के लिए प्रार्थना की। ..और उसके बाद हम तेज गति से घर की ओर चल पड़े।
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गांव पहुंचते ही भौंकते कुत्तों ने हमारा स्वागत किया। चिड़ियों की चहचहाहट ने पौ फूटने का ऐलान कर दिया तो अन्य पक्षियों ने भी जैसे आदेश पाते ही पंख फड़फड़ाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी…।
अंततः हम घर पहुंच गए। सभी हमारा इंतजार कर रहे थे। तायी ने शिकायत भरी नजरों से दीपू को देखा। शर्मिंदा दीपू ने झुकी नजरों से मां के पैर झुए और चुपचाप भीतर चला गया। वहां उसकी पत्नी ने भी कुछ नाराजगी प्रदर्शित की। बोली, “अब आए हो? कहां रहे इतने दिन?” दीपू सिर झुकाए खड़ा रहा जैसे अपनी गलती स्वीकार कर रहा हो। लेकिन पत्नी तो बेसब्री से उसका ही इंतजार कर रही थी। चेहरे पर नाराजगी अधिक देर तक कायम नहीं रख सकी और अंततः मुस्कुराते हुए उसने पति को नवजात के दर्शन उसे करा दिए।
दीपू के आनंद की कोई सीमा ना रही। वह बेटे को देखता ही रह गया। उसे गोद में लेने के लिए मचला, लेकिन तायी ने प्यार से डांटते हुए रोक दिया। बोली, “पागल, पहले नहा- धो ले, फिर गोद लेना। बाहर से आकर इस तरह बच्चे को नहीं छूना चाहिए।” दीपू आज्ञाकारी बालक की तरह किनारे बैठ गया।
सुधा ने कहा, “चाय पियोगे?” मैंने कहा, “बहुत नींद लगी है। बस सोना चाहता हूं। चाय बाद में ही पियूंगा।“ सुधा ने पूछा, “आपने देवरजी को कहीं बहुत ज्यादा तो नहीं डांटा? मैंने कहा, “नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।” वह संतुष्ट हुईं।
मैं तुरंत ही सोने चला गया। साथ वाले कमरे से तायी के डांटने और दीपू की ज्ञमा याचना करने की हल्की आवाजें आती रहीं। ..फिर कुछ देर तक आंखों में करियाला के सीन चलचित्र की तरह तैरने लगे…कभी डूबते, कभी उभरते, फिर डूबते, फिर उभरते … अंततः मैं गहरी नींद में डूब गया।
कुछ देर बाद सुधा ने जगाया और बोली, “उठो जी, नहाकर चाय- नाश्ता कर लो। बाकी की नींद बाद में पूरी कर लेना।” अनमने से उठा तो देखा आंगन में धूप खिल आई थी। सर्दी का मौसम शुरू होते ही धूप सबको प्यारी लगने लगती है। पड़ोस के बुजुर्ग धूप का आनंद लेते हुए गप्पें लड़ा रहे थे।
नहाकर लौटा तो संगीत की मधुर धुन ने ध्यान खींचा। खिड़की से झांका तो देखा दीपू हारमोनियम लिए कोई भजन गा रहा है, साथ बैठा बंटू तालियां बजा रहा है और मुनिया नाच रही है।
वाह! क्या मंजर है। कल तक जो तायी दीपू को कोसते नहीं थक रही थीं, अब नवजात पौत्र को गोद में लिए प्रसन्नचित बैठी हैं, कभी पौत्र तो कभी भोलेभाले बेटे को प्यार से निहार रही हैं। गर्म शाल लपेटे कोने में बैठी प्रसूता का चेहरा भी खिला हुआ है। नजरों ही नजरों में पति पर प्यार उंडेल रही हैं। …अब किसी को भी किसी से कोई शिकायत नहीं रही। हर तरफ प्यार बरस रहा है। दीपू किसी आध्यात्मिक आनंद में डूबा हुआ भजन गाने में लीन है।
सोचता हूं, हम लोग जीवन भर खुशियों की तलाश में ना जाने क्या- क्या षटकर्म करते फिरते हैं, लेकिन हाथ कुछ नहीं लगता। हाथ लगता है तो केवल घोर असंतोष, तनाव, झुंझलाहट, डिप्रेशन, कलह…। वास्तव में आनंद तो आपके भीतर ही है, बस उसे बाहर लाने की कला आपमें होनी चाहिए। काश, यह कला हम सब में होती…
नाश्ता परोसते हुए सुधा बोलीं, “सुनो जी! इस बार की दीवाली यादगार साबित होने वाली है। बच्चे भी बहुत खुश हैं। मैंने कहा, “बिल्कुल, दुनियाभर की खुशियां घर में उतर आई हैं। बस, यही कामना है कि ये खुशियां हमेशा- हमेशा बनी रहे।”
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कहानी- एच. आनंद शर्मा, धार व्यू. नजदीक आईएसबीटी, टूटीकंडी, शिमला-171004 (हि.प्र.)
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