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विवेकानंद का चिंतन मार्क्सवाद के कितना निकट?

वह देश जहां करोड़ों लोग महुआ के फूलों पर जीवित रहते हैं, जहां दस लाख से ज्यादा साधू और दस करोड़ ब्राह्मण हैं जो गरीबों का खून चूसते हैं। वह देश है या नर्क

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वह धर्म है या शैतान का नृत्य?”

इन दिनों इस तरह की बात कहना एक खतरनाक गुनाह माना जा सकता है। कालबुर्गी, दभोलकर और पानसारे इस तरह की बातें बोले बिना ही मार डाले गए थे। करीब सवा सौ साल पहले यह बात बोलने वाले थे विख्यात हिंदू संत स्वामी विवेकानंद। गौतम बुद्ध की भांति उनका भी मानना था कि इतिहासबोध अनुसंधान, जिरह और बौद्धिक संतुष्टि की दरकार रखता है। प्रश्न करना समझने की कोशिश करने का पहला चरण है।

स्वामी विवेकानंद ऐसे उदार हिंदु संत थे, जिसकी चिंता में जितना वेदों का पुनर्पाठ और उनके वेदांतिक निष्कर्षों का परिष्कार था उतना ही भारतीय समाज का क्रांतिकारी सामाजिक– आर्थिक रूपांतरण था। कामगारों के आर्थिक तथा समाज में जाति आधारित शोषण के प्रति उनका क्षोभ और आक्रोश संत समाज के व्यक्ति के नाते एक दुर्लभतम् गुण था।

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वे कहते थे कि संन्यासी का मतलब गेरुआ वस्त्र नहीं है। व्यक्ति की निस्वार्थता ही उसे संत या संन्यासी बनाती है। विज्ञान, अध्ययन, कला, समाज सेवा, यहां तक कि उद्योग रक्षा और कानूनी रक्षा में भी संन्यासी प्रवृत्ति का पालन करने वाले हैं। इसी विशिष्ट प्रश्नाकूलता के चलते विवेकानंद दुनिया के अनेक देशों का भ्रमण किया। लगभग पूरा भारत घूमा और अपनी आंखों देखी के आधार पर उन कारणों की शिनाख्त की, जो खासतौर से भारत और आमतौर पर मानव समाज की बेड़ियां बने हुए हैं। धार्मिक संकीर्णता और जातिवाद पर जितना हमला स्वामी विवेकानंद ने किया है, उतना करने का साहस अनेक प्रतिबद्ध नास्तिक भी नहीं जुटा पाते हैं। संकीर्ण हिंदुवाद को वे भारतीय सभ्यता का सबसे प्रमुख अवरोध मानते थे।

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स्वामी विवेकानंद ने यहां तक कहा कि, धर्म, अज्ञानी जनता के शोषण का बड़ा हथियार है और पूंजीवाद का उपकरण है। वास्तव में कार्ल मार्क्स ने भी धर्म की व्याख्या करते हुए यही कहा था, लेकिन यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि स्वामी विवेकानंद ऐसा बिना मार्क्स को पढ़े कह रहे थे। स्वामी विवेकानंद के नोट्स, डायरियों और प्रवास के दौरान दिए गए भाषणों से यह झलक कहीं नहीं मिलती कि उनका कभी मार्क्स से वास्ता पड़ा होगा। मगर जैसा कि कहा गया है कि एक जैसी परिस्थितियां भी समान सोच की ओर प्रवृत्त करती है। विवेकानंद का कहना था कि, मैं ऐसे ईश्वर में विश्वास नहीं करता हूं जो यहां तो रोटी नहीं दे सकता है, लेकिन स्वर्ग में अनंत सुखों की बौछार करता है।

विवेकानंद ने अपने धर्म (हिंदू धर्म) में जड़ता और कूपमंडूकता के अंधेरे पर चोट की। उनका मानना था कि प्रचलित धार्मिक रिवाजों का मूल हिंदू धर्म के किसी प्रमाणिक ग्रंथ में दिखाई नहीं देता। उनका मानना था कि सामाजिक अत्याचार और पुरोहितवाद का खात्मा होना चाहिए। सभी के लिए समान अवसरों की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

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विवेकानंद ने अनेक बार समाजवाद की पैरवी की है। वे इकलौते ऐसे ख्यात हिंदू संत हैं, जिन्होंने समाजवाद की बात ही नहीं की बल्कि अपने हिसाब से उसके पक्ष में तर्क भी प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि समाज में दो ही वर्ग है। अमीर और गरीब। गरीब और गरीब हो रहे हैं, अमीर और अधिक अमीर होते जा रहे हैं। उनके मत में भारत के लिए एकमात्र आशा गरीब जनता से ही है। ऊंचे वर्गों के लोग तो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से मृत हैं।

विवेकानंद मानते थे कि नए भारत की संस्कृति सर्वहारा संस्कृति होगी। इसे वर्णाश्रम के मुहावरे में रखते हुए उन्होंने कहा था, पहले ब्राह्मणों का राज आया और उसके बाद क्षत्रियों का। आजकल दुनिया में वैश्यों (पूंजीवाद) का राज चल रहा है। वह दिन दूर नहीं जब शूद्रों (मेहनतकशों) का राज आएगा। यह हरेक देश में होगा। जहां वे हर समाज में पूरी श्रेष्ठता हासिल करेंगे। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, मैं हैरत में हूं कि पहला शूद्र राज्य कहां स्थापित होगा। मेरा पक्का विश्वास है कि वह रूस या चीन में होगा। इन दोनों देशों में बहुत बड़ी संख्या में लोग पीड़ित और दलित हैं।

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यह विवेकानंद ही थे, जिन्होंने कहा था कि उनका आदर्श इस्लामी देह में वेदांती मस्तिष्क है। अपने भाषणों में वे हमेशा कहते थे, सभी धर्म सच्चे हैं। सभी धर्मों में कमियां और त्रुटियां हैं। सभी धर्म मुझे उतने ही प्रिय है, जितना हिंदू धर्म। मेरे मन में सभी के लिए एकसमान श्रद्धा है। इसी विश्वास के आधार पर विवेकानंद ने वह मशहूर टिप्पणी की थी कि, धर्म को खतरा किसी दूसरे धर्म से नहीं है। धर्म को असली खतरा उसके एजेंटों से ही है। धर्म के ये एजेंट ही हैं जो धर्म की मनमानी व्याख्या करके उसके जघन्य दुरुपयोग पर आमादा है और बिखराव, हिंसा और आतंक से देश व दुनिया को दहशतजदा करने पर आमादा है।

स्वामी विवेकानंद ऐसे उदार हिंदू संत थे जो भारतीय समाज के मूलगामी सामाजिक रूपांतरण के लिए कटिबद्ध थे। उनकी रचनाएं आज भी दैनंदिन उपयोग के लिए प्रासंगिक हैं। उनमें कालबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे के तर्क, विवेचना और वैज्ञानिक चेतना के हत्यारों को सामाजिक रूप से तिरस्कृत और अलग- थलग करने की अपार क्षमता मौजूद है। (लोकलहर से साभार)

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एच. आनंद शर्मा

H. Anand Sharma is active in journalism since 1988. During this period he worked in AIR Shimla, daily Punjab Kesari, Dainik Divya Himachal, daily Amar Ujala and a fortnightly magazine Janpaksh mail in various positions in field and desk. Since September 2011, he is operating himnewspost.com a news portal from Shimla (HP).

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