शिमला। देश की पंद्रहवीं लोकसभा में सबसे सीनियर सांसद वीरभद्र सिंह की हालत कांग्रेस में महाभारत के भीष्म पितामह की तरह हो गई
पंद्रहवीं लोकसभा में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह वरिष्ठतम सांसद हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में वे 1962 में सांसद चुन लिए गए थे। तब वीरभद्र सिंह की उम्र मात्र 28 साल थी। देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के साथ लोकसभा में काम करने का गौरव भी उन्हें प्राप्त हुआ। उसके बाद इंदिरा गांधी मंत्रिमण्डल में वीरभद्र सिंह पहली बार केन्द्रीय मंत्री बने। पहले उपमंत्री, फिर उद्योग मंत्रालय में राज्यमंत्री। उन्हें कांग्रेस में सक्रिय 50 साल पूरे हो गए हैं और इस लम्बे समय में उन्होंने पार्टी को कभी अलविदा नहीं कहा। यानी लोकसभा में वरिष्ठताक्रम में वीरभद्र सिंह सर्वोपरि हैं। इसके बावजूद उनकी स्थिति महाभारत के भीष्म पितामह की तरह दयनीय हो गई हैं। समय तेजी से बदल रहा है और इस बदलते समय में वीरभद्र सिंह को सही राजनीतिक परामर्श देने के लिए न तो कोई विदुर है और न ही श्री कृष्ण।
हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह का अच्छा खासा जनाधार है। 50 साल के सक्रिय राजनीतिक जीवन में वे केवल एक बार सांसद का चुनाव हारे। वह भी 1977 की कांग्रेस विरोधी लहर में। जब इंदिर गांधी भी चुनाव हार गई थीं। दो बार केन्द्रीय मंत्री और पांच बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके वीरभद्र सिंह के लिए इस बार जीवन का यह सबसे कठिन दौर चल रहा है। प्रदेश में भारी भरकम जनाधार के बावजूद दिल्ली दरबार में उनकी कोई सुनवाई नहीं है। लगता है कांग्रेस हाईकमान वीरभद्र सिंह के मामले में महाभारत के धृतराष्ट्र की तरह गंूगा, बहरा, अंधा हो गया है।
पिछले करीब तीन साल से कांग्रेस हाईकमान लगातार वीरभद्र सिंह की उपेक्षा कर रहा है। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के गठन के समय वीरभद्र सिंह की अनदेखी कर आनंद शर्मा को मंत्री बना दिया गया। इसकी भरपाई मंत्रिमण्डल विस्तार के समय की गई, जब उनकी ताजपोशी इस्पात मंत्री के रूप में हुई। मंत्रिमण्डल में फेरबदल के समय इस्पात जैसा भारी भरकम मंत्रालय छीनकर उन्हें लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय का झुनझुना थमा दिया गया। इससे पूर्व वीरभद्र सिंह के परम्परागत विधानसभा चुनाव क्षेत्र रोहड़ू के उपचुनाव में पार्टी टिकट के मामले में भी उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। वीरभद्र सिंह के लोकसभा में जाने के कारण रोहड़ू विधानसभा सीट रिक्त हो गई थी और वे चाहते थे कि उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह यहां से उपचुनाव लड़ें। लेकिन पार्टी हाईकमान नहीं माना और पहली बार रोहड़ू क्षेत्र में भाजपा का परचम लहराया। कौल सिंह ठाकुर के दोबारा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने का भी वीरभद्र सिंह ने सख्त विरोध किया, लेकिन हाईकमान ने इस मामले में भी उनकी एक नहीं सुनी।
मुद्दा चाहे केन्द्रीय मंत्रिमण्डल का हो, इस्पात मंत्रालय छिन जाने का हो, कौल सिंह को दोबारा अध्यक्ष बनाने का हो या रोहड़ू उपचुनाव का, हर मामले में दिल्ली दरबार में वीरभद्र सिंह की अनदेखी ही हुई। हद तो तब हो गई जब वीरभद्र सिंह के पुत्र विक्रमादित्य सिंह का चुनाव हाईकमान के इशारे पर निरस्त कर दिया गया। विक्रमादित्य सिंह ने कड़ी मेहनत कर प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष पद का भारी अंतर से चुनाव जीता, लेकिन चुनाव रद्द कर दिया गया। न केवल चुनाव रद्द किया, बल्कि विक्रमादित्य के दोबारा चुनाव लडऩे पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। यह वीरभद्र सिंह के लिए अब तक का सबसे बड़ा झटका था।
राजनीति के इस बूढ़े शेर को तीन साल से झटके पर झटके दिए जा रहे हैं। उन्होंने इनका डटकर मुकाबला भी किया गया, लेकिन ताजा झटके से उनके सब्र का बांध टूट गया लगता है। नवम्बर में सम्भावित विधानसभा चुनावों के लिए गठित चुनाव स्क्रीनिंग कमेटी में वीरभद्र सिंह को जगह ही नहीं दी गई। संकेत स्पष्ट हैं कि पार्टी टिकटों के वितरण में उनकी भूमिका नहीं होगी। वीरभद्र सिंह प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के सशक्त दावेदार हैं। जाहिर है कि जब टिकट आबंटन में ही उनकी सुनवाई नहीं होगी तो मुख्यमंत्री कैसे बन पाएंगे? इसका नतीजा यह निकला कि वीरभद्र सिंह ने सभी चुनाव समितियों से किनारा कर लिया। दिल्ली में उन्हें मनाने के प्रयास जारी हैं। मंथन चल रहा है और हिमाचल प्रदेश में सभी की निगाहें इस मंथन से निकलने वाले अमृत अथवा विष की ओर लगी हुई हैं।
(लेखक न्यूज़ चैनल ‘हिमाचल आजकल’ के प्रधान संपादक हैं।)
हाईकमान की घेराबंदी में वीरभद्र की छटपटाहट
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