देहरादून। यूं तो वर का असल इम्तिहान शादी के बाद होता है, लेकिन पौड़ी जिले के कोटद्वार भाबर में रहने वाले बोक्सा जनजाति के युवाओं को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश से पहले ही कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है। बोक्साओं में वर को विवाह से पहले कन्या के घर में हल जोतने और लकड़ी काटने से लेकर झोपड़ी तक बनानी होती है। कई बार इस प्रक्रिया में लंबा समय बीत जाता है। परीक्षा में पास हुए तो गले में वरमाला वरना..।
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उत्तराखंड के जनजाति समुदाय में बोक्सा प्रमुख हैं। यह नाम इन्हें कैसे मिला, इस पर मतभेद हैं। बताया जाता है भाबर के जंगलों को पहले पहल इन्होंने आबाद किया। तब जीवनयापन के लिए समुदाय के लोग वन में मिलने वाले पौधे बुकरा की जड़ें खाते थे। इसी आधार पर उन्हें बोक्सा कहा गया। बदलते वक्त में भी ये अपनी परंपराओं को सहेजे हुए हैं।
बोक्साओं की विवाह परंपरा अनूठी है। पीपल की ‘घुम्या’ देवता के रूप में पूजा करने के बाद सगाई की रस्म निभाई जाती है। तब शुरू होती है वर की परीक्षा। इसके तहत वर को कुछ समय के लिए कन्या के घर में रहना पड़ता है। इस दौरान कन्या पक्ष उससे खेतों में हल लगवाता है। इसके बाद उसे कुल्हाड़ी से लकडिय़ां काटनी होती हैं। दोनों परीक्षाओं में पास होने के बाद वर से झोपड़ी बनवाई जाती है। जब तय हो जाता है कि लड़का सुयोग्य है तब पंचायत में विवाह की तिथि घोषित की जाती है। विवाह के दौरान वर पक्ष की ओर से वधू पक्ष को शगुन दिया जाता है। शगुन स्वीकारने पर ही वधू पक्ष भविष्य में वर पक्ष के घर का रुख करता है।
जशोधरपुर गांव के वासी छोटे लाल बताते हैं, ”अपनी शादी के वक्त काबिलियत साबित करने में मुझे छह माह का समय लग गया था। लेकिन अब समय के साथ इन परंपराओं को सहेजना आसान नहीं रह गया है। अब खेतों में हल की जगह ट्रैक्टर चलने लगे हैं और चूल्हे की जगह गैस ने ले ली है। इसलिए यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।”