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कहां तक पहुंचेगी किसान आंदोलन की आंच?

देश में बहुत जल्द आर्थिक और राजनैतिक संकट उभरता दिख रहा है

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सत्ताधारी दल के अंतर्विरोध भी जल्द उभरेंगे और इसका श्रेय निश्चय ही देश के किसानों को जाता है, जिन्होंने एक बार फिर कुर्बानी देकर पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था की चूलें हिला दी हैं। अब मजदूरों की बारी है। 

नई दिल्ली। उर्जित पटेल से लेकर अरुंधती भट्टाचार्य और अरुण जेटली से लेकर अर्जुन राम मेघवाल तक सभी इस बात की तस्दीक कर रहे कि भारतीय अर्थव्यवस्था घोर संकट में है और उसके बैंकों के पास इतनी तरलता (लिक्विडिटी ) नहीं है कि वह डेढ़ लाख करोड़ की ऋण माफी सह सके। कारण साफ है आज की तारीख में सबसे सुरक्षित ऋण किसान का ही है और वह उत्पादक है, उसकी वापसी दर भी 90% से ऊपर है। किसान न गांव छोड़कर भागता है, न घर छोड़कर। ऋण के बोझ तले वह दुनिया जरूर छोड़ देता है। इसीलिए उसका ऋण ब्याज सहित वापस हो जाता है, जिससे बैंकों की तरलता लगातार बनी रहती है।

कारपोरेट ऋण का तो बड़ा हिस्सा (लगभग 5 लाख करोड़ रुपये ) बट्टे खाते में है। कई विजय माल्या हैं जो विदेशों में ऐश कर रहे, शायद सरकारी संरक्षण में। देश के निर्माण उद्योगों की विकास दर लगभग शून्य है, रियल स्टेट क्षेत्र तो ऋणात्मक विकास की गति को प्राप्त कर चुका है। वहां से भी बैंकों को पैसा नहीं मिल रहा और ये स्थिति नोटबंदी के बाद और खराब हुई है।

अब सोचिये यदि फसल कटाई के मौसम में पूरे देश में किसानों का ऋण माफ हो जाता है तो बैंकों को लगभग 3 से 4 लाख करोड़ रुपया नकद नहीं मिलेगा और सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लाले पड़ जायेंगे। इसलिए वित्तमंत्री और रिजर्व बैंक साफ कह रहे हैं कि राज्य अपने स्रोतों से ही ऋण माफी करें। दूसरी ओर जुलाई से जीएसटी लागू होगा तो राज्यों को अपने साधन जुटाने व कर लगाने की आजादी भी ख़त्म हो जायेगी।

कुल मिलाकर केंद्र सरकार भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को अप्रत्यक्ष निर्देश दे रहा है कि- किसानों की अवहेलना करो। लेकिन इससे आने वाले दिनों में एक बार फिर राज्य और केंद्र के बीच टकराव बढ़ेगा, क्योंकि यदि कार्यों के बंटवारे की बात करें तो राज्यों के जिम्मे लगभग 80% काम हैं, जबकि उनकी आर्थिक आजादी जीएसटी के बाद लगभग शून्य हो जानी है।

तो क्या राज्य सरकारें जिस जनता से चुनकर बनीं हैं, उसे कोई आर्थिक राहत केंद्र की मर्जी के बिना नहीं दे सकेंगी? क्या इसके बाद मोदी जी देश में अमेरिकी तरीके की राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत करने वाले हैं? हो सकता है 26 जून को इसी गुरुमंत्र को प्राप्त करने ट्रंप के पास जा रहे हों। जो भी हो इस देश में बहुत जल्द आर्थिक और राजनैतिक संकट उभरता दिख रहा है। सत्ताधारी दल के अंतर्विरोध भी जल्द उभरेंगे और इसका श्रेय निश्चय ही देश के किसानों को जाता है, जिन्होंने एक बार फिर कुर्बानी देकर पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था की चूलें हिला दी हैं। अब मजदूरों की बारी है, जो रेलवे सहित देश के सार्वजनिक उद्यमों को बेचने के मोदी सरकार के इरादों को नाकाम करने सड़कों पर उतरेंगे। निश्चित रूप से इस बार जनता किसान- मजदूरों के साथ खड़ी होगी। (लेखक, नंद कश्यप, आर्थिक विशेषज्ञ एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

एचएनपी सर्विस

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