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..ताकि लोकतंत्र चुनाव तंत्र बनकर न रह जाए

…उस समय एक सुझाव यह भी आया था कि पूरे देश में सभी चुनाव पंचायतों से लेकर लोकसभा तक पांच साल में निश्चित समय पर एक बार हों|

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कोई स्थान खाली होने पर उपचुनाव करवाने की बजाय दूसरे स्थान पर रहने वाले को विजयी घोषित कर दिया जाए| दल बदल कानून को और सख्त बना दिया जाए, यदि कोई प्रदेश की सरकर समय से पहले टूट जाए तो बाकि के समय के लिए उस राज्य में राष्ट्रपति शासन रहे|

देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनावों को एक साथ करवाने का सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण एवं सामयिक है| इस पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए| यह केवल सुविधा की दृष्टि से ही आवश्यक नहीं है, अपितु आज़ादी के 67 वर्षों के बाद भी करोड़ों लोगों को बुनियादी सुविधाएं देने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है|

चुनाव एक प्रदेश में हो या कुछ अधिक प्रदेशों में हो, पूरे देश की राजनीति उलझ जाती हैं| हर वर्ष कहीं न कहीं चुनाव होते हैं| अभी कुछ राज्यों के चुनाव से निवृत्त हुए हैं और उसके एकदम बाद अगले राज्यों के चुनाव के लिए तैयारी शुरू हो गई है| धीरे- धीरे लोकतंत्र चुनाव तंत्र बनता जा रहा है| देश पूरा समय चुनावी मूड में रहता है| विकास के लिए मूड बहुत कम बन पाता है |

लेखक, शांता कुमार, भाजपा सांसद एवं हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हैं।

चुनाव का खर्च लगातार बढ़ रहा है| भारत के प्रथम चुनाव पर एक रुपया प्रति व्यक्ति खर्च आया था| अब 22 रुपये प्रति व्यक्ति खर्च होता है| खर्च 22 गुना बढ़ा और आबादी 35 करोड़ से 125 करोड़ हो गई| चुनाव पर सरकार के खर्च के मुकाबले बाकि खर्च कई गुणा बढ़ गया है| पार्टियों, उम्मीदवारों का खर्च तो लाखों करोड़ों पहुंचता है| इसमें अधिक कालाधन होता है। यदि चुनाव पांच साल में एक बार हो तो कई लाख करोड़ की बचत होगी और लोकतंत्र पर कालेधन की कालिख भी पांच बार की बजाय एक बार ही लगेगी|

आज का आर्थिक परिदृश्य चिन्ताज़नक है| एक ओर विश्व में तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था अमीरों करोड़पतियों की बढ़ती संख्या और दूसरी तरफ करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे| विश्व में सबसे अधिक भूखे लोग भारत में और कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या भी सबसे आधिक भारत में है| कृषि प्रधान देश भारत मे तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी त्रासदी यही रही है कि आर्थिक विकास तो हुआ, पर सामाजिक न्याय नहीं हुआ| अमीरी चमकती रही और गरीबी सिसकती रही| विकास के साथ आर्थिक विषमता और बढ़ गयी है| बढ़ती जनसंख्या और उसी अनुपात में बढ़ती हुई बेरोजगारों की संख्या एक भयंकर समस्या बनती जा रही है| प्रति वर्ष लगभग 1 करोड़ नौकरी चाहने वाले उम्मीदवार बढ़ जाते हैं | निराशा और हताशा में कुछ अपराध की दुनिया में भी चले जाते हैं| अपराध भी बढ़ रहे हैं और निराशा में आत्महत्याएं भी बढ़ रही हैं।

केंद्र की नई सरकार गांव, गरीब किसान के लिए बहुत कुछ करने का प्रयत्न कर रही है, परन्तु विरासत में मिली समस्याएं उससे भी अधिक जटिल हैं।

अटल जी की सरकार के समय श्री भैरों सिंह शेखावत जी और मैंने इस प्रश्न पर कई बार बात की थी| उन्होंने कई दलों से बातचीत भी प्रारंभ की थी| बात पूरी तरह से आगे नहीं बढ़ सकी| उस समय एक सुझाव यह भी आया था कि पूरे देश में सभी चुनाव पंचायतों से लेकर लोकसभा तक पांच साल में निश्चित समय पर एक बार हो| कोई स्थान खाली होने पर उपचुनाव करवाने की बजाय दूसरे स्थान पर रहने वाले को विजयी घोषित कर दिया जाए| दल बदल कानून को और सख्त बना दिया जाए, यदि कोई प्रदेश की सरकर समय से पहले टूट जाए तो बाकि के समय के लिए उस राज्य में राष्ट्रपति शासन रहे| इस प्रावधान से विधानसभाओं की स्थिरता निश्चित हो जाएगी। कोई भी विधायक बेकार नहीं रहना चाहेगा|

लोकतंत्र के लिए हमारी प्रतिबद्धता है, परन्तु आज़ादी के इतने साल बीत जाने के बाद देश के प्रत्येक व्यक्ति को सब प्रकार से सम्मान का जीवन दिलाना उससे भी बड़ी प्रतिबद्धता है| इसलिए लोकतंत्र को थोड़ा नियंत्रित और मर्यादित करने के लिए चुनाव प्रणाली में सुधार आवश्यक है।

एचएनपी सर्विस

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