पहाड़ों में खरांवका घी ही प्रयोग में लाया जाता है। यह घी खुशुबूदार और स्वाद में अद्वितीय होता है। ठेठ पहाड़ी लोगों को यदि कहीं आंवड़ा घी खिला दिया जाए तो तुरंत कह देंगे-
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नाहन (सिरमौर)। सर्दियों के मौसम में हर जगह ही घी की खपत बढ़ जाती है। बाकी समय परहेज करने वाले भी सर्दियों में इसका आनंद उठाने में पीछे नहीं रहते। पहाड़ी क्षेत्रों में तो देसी घी हमेशा से ही रसोई की शान रहा है। मेहमानों को खुश करने का एकमात्र साधन। वैसे यह तो सभी जानते हैं कि मक्खन को पिघला कर घी बनाया जा रहा है, लेकिन बिरलों को ही पता होगा कि घी दो प्रकार का होता है, एक खरांवका और दूसरा आंवड़ा।
मक्खन से घी बनाते समय जब लस्सी से घी अलग हो जाता है तो थोड़ा और पका कर उसे आंच से उतार देते हैं। यह आंवड़ा घी कहलाता है। शहरी क्षेत्रों में जो डिब्बाबंद घी मिलता है, वह ज्यादातर इसी श्रेणी का होता है। परन्तु खरांवका घी बनाने के लिए उसे तब तक पकाया जाता है जब तक घी पीला और उसके अलग हुई लस्सी का रंग गहरा भूरा न हो जाए। उसके बाद उस गहरे बूरे अवशेष को छनणी द्वारा अलग और शुद्ध घी को अलग कर दिया जाता है।
गांवों में इस गहरे भूरे अवशेष को ब्लेई या कहीं भलोई कहा जाता है। सर्दियों में हाथ- पैरों की ड्राईनेस को दूर करने के लिए इसकी मालिश की जाती है। गर्म तासीर की होने के कारण इसे जोड़ों के दर्द में भी मालिश के लिए प्रयोग किया जाता है। कभी महिलाएं इसे बालों में भी लगाती थीं, लेकिन अब तेल या शेम्पू ही प्रयोग करती हैं।
पहाड़ों में खरांवका घी ही प्रयोग में लाया जाता है। यह घी खुशुबूदार और स्वाद में अद्वितीय होता है। ठेठ पहाड़ी लोगों को यदि कहीं आंवड़ा घी खिला दिया जाए तो तुरंत कह देंगे- ‘यह घी नहीं, पानी है। इस घी में वह महक और स्वाद कहां?’ आज भी गांवों में मेहमानों को माश-बालड़ी की दाल के साथ घी परोस दिया जाए तो वे उसी में तृप्त हो जाते हैं।
ऊपरी क्षेत्रों में खरांवका घी के साथ कई तरह के कांम्बीनेशन प्रचलित हैं। इसमें बाड़ी- घी, अस्क्ली- दाल- घी, घी- छोइंछा, माशदाल- घी- पटण्डे, घी- सिड़कू तथा घी-चिल्टे आदि। खरांवका घी में स्वाद अधिक और साइड इफ़ेक्ट कम होता है। गांवों में कई– कई कटोरी घी पीकर सबको हैरान कर देने वाले भी आपको मिल जाएंगे, जबकि शहरी क्षेत्रों में आदत नहीं होने के कारण अकसर दो चम्मच घी खाने पर भी लोगों का पेट चलना शुरू हो जाता है।