संत कबीर भक्तिकाल के प्रखर साहित्यकार एवं समाज-सुधारक थे। मान्यता है कि वे लहरतारा में एक हिन्दू परिवार में जन्मे और पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ था। काशी के घाट पर स्वामी रामानंद के चरण-स्पर्श हो जाने से कबीर ने अपने को धन्य माना और उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया। अधिक शिक्षित न होने के बावजूद वे अपने युग के सबसे बड़े समाज-सुधारक सिद्ध हुए। वे निराकार ब्रह्म के उपासक थे। संत कबीर ने हिन्दू- मुस्लिम दोनों धर्मावलंबियों को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया और धर्म के झूठे आडंबर- पूर्ण कर्मकांडों पर जमकर प्रहार किये। उन्होंने भारतीय समाज को दकियानूसी एवं तंगदिली से बाहर निकालकर एक नयी राह पर डालने का प्रयास किया। इसी कारण कबीर की वाणी आज भी घर-घर में गूंजती है।
प्रस्तुत है संत कबीर के बीस प्रमुख दोहे सार सहितः
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।
(हिन्दू राम के भक्त हैं और मुसलमानों को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़- लड़ कर मर गए, तब भी दोनों में से कोई सच को नहीं जान पाया।)
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।।
(कबीर जी कहते हैं कि जब तक गुण को परखने वाला गाहक नहीं मिल जाता, तब तक उसकी कोई कीमत नहीं होती।)
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही।
सब अंधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।।
(जब मैं अपने अहंकार में डूबा था तब प्रभु को न देख पाता था, लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया। ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और मुझे प्रभु की प्राप्ति हो गई।)
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।।
(कबीर दास जी कहते हैं कि वे इस संसार में सभी का भला चाहते हैं। उनकी ना किसी से दोस्ती हैं और ना ही किसी से दुश्मनी।)
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।।
(जिस का मन चाह और चिंता से मुक्त है और जिसे कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं है, वह व्यक्ति वास्तव में ही शहनशाह है।)
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
(जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। जब मैंने अपने मन में झांक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।)
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय।।
(संसार में बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़कर कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुंच गए, पर सभी विद्वान नहीं हो सके। यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले अर्थात् प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।)
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
(साधु ऐसा होना चाहिए जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता है, जो सार्थक को बचा ले और निरर्थक को उड़ा दे।)
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।
(लोग अकसर जिंदगी भर हाथ में मोती की माला को घुमाते रहते हैं, पर उनके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। ऐसे व्यक्तियों को चाहिए कि वे माला के मनके फेरना छोड़ कर मन के मनकों को फेरें।)
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
(साधु की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को देखना चाहिए। मोल तलवार का होता है, मयान का नहीं।)
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
(यह मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका कोई अंत नहीं है।)
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
(जो लोग प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ पा लेते हैं। जैसे गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है, लेकिन कुछ लोग डूबने के भय से नदी किनारे बैठे ही रह जाते हैं।)
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
(वाणी एक अमूल्य रत्न है बशर्ते कोई सही तरीके से बोलना जानता हो। इसलिए वह हृदय के तराजू में तोलने के बाद ही शब्दों को मुंह से बाहर आने देना चाहिए।)
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
(जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने पास ही रखना चाहिए। निंदक हमारी कमियां बताकर बिना साबुन और पानी के हमारे स्वभाव को निर्मल कर देता है।)
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।
(कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह उलझा मन नहीं सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।)
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।
(मनुष्य का शरीर पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।)
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
(इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है, वह अस्त होगा, जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा, जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।)
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।।
(मनुष्य झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है, जबकि यह सारा संसार ही मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।)
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।।
(सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें, वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता है। जैसे चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।)
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।।
(शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बिरले ही बना सकते हैं। यदि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियां सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।)
-प्रस्तुति- एचएनपी सर्विस
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