अग्रणी सेब उत्पादक क्षेत्र कोटखाई में इसराइली तकनीक से सेब का एक मॉर्डन बागीचा तैयार हो रहा है। वर्ष 2012 में इस बागीचे में पहली फसल आएगी। राजेन्द्र सिंह चौहान (49) करीब पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित अपने गांव कोकूनाला में इस बागीचे को तैयार कर रहे हैं। क्लोनल रूट स्टॉक पर लगे तीन साल के पौधों की ट्रिनिंग बागीचे की खासियत है। यह विधि इसराइल की है और इसमें पौधे की आधी ऊंचाई तक वाली प्रत्येक शाखा को हर दिशा में 45 डिग्री के कोण पर रस्सियों से खींच कर जमीन में बांधा जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार ऐसा करने से शाखाओं में बीमें जल्द फूटते हैं और भरपूर फसल आती है।
राजेंद्र चौहान ‘ब्रिज ग्राफ्टिंग’ तकनीक से पुराने पौधों में जान डालने का कार्य भी पिछले पांच वर्षों से सफलता पूर्वक कर रहे हैं।
राजेन्द्र सिंह चौहान करीब 25 वर्षों से बागवानी से जुड़े हैं। पांच हजार से लेकर 7 हजार फुट की ऊंचाई तक इनके सेबके बागीचे हैं, जिनमें रॉयल जैसी पुरानी सेब वैरायटियां लगी हुई हैं। पांच हजार फुट की ऊंचाई पर लगे पुराने बागीचे में फल की गुणवत्ता और उत्पादन गिरने के बाद चौहान ने स्पर कल्टीवेशन की ओर जाने का निर्णय लिया। इस बारे में जानकारी हासिल करने के लिए उन्होंने वर्ष 2002 में उन सभी सररकारी और निजी बागीचों का दौरा किया जहां नई स्पर प्रजातियां लगाई गई थीं। उनके बागीचे के लिए कौन सी किस्में उपयुक्त रहेंगी, इसकी विस्तृत जानकारी जुटाने के बाद उन्होंने नई वैरायटियों का रोपण आरंभ किया। पहले चरण में वर्ष 2003 में राजेन्द्र ने अपनी करीब 10 बीघा भूमि पर पुराने रॉयल के पौधों को फ्रेम वर्क ग्राफ्टिंग से स्पर की रेड चीफ वैरायटी में बदला। उसके बाद वह स्पर की और उम्दा वैरायटियों की जानकारी जुटाने में लग गए। वर्ष 2007 में राजेन्द्र बागवानी विभाग के किन्नौर स्थित भोकटू फार्म गए और वहां विदेशों से आयात की गई नई स्पर वैरायटियों को देखा। चौहान का रुझान भी इन वैरायटियों की ओर बढ़ा। वर्ष 2008 में नई किस्मों की कलमें एकत्र करने के बाद चौहान ने इन्हें अपने बागीचे में लगाना शुरू कर दिया। नई वैरायटियों के अलावा चौहान अपने बागीचे को हर उस तकनीक से लैस करना चाहते थे, जो विश्व में सेब उत्पादन में इस्तेमाल हो रही हो। इसी के तहत उन्होंने नए रूट स्टॉक पर इसरायल तकनीक इस्तेमाल कर एक मॉडल ऑर्चर्ड तैयार करने का फैसला किया।
इसरायल विधि
राजेन्द्र सिंह चौहान अपने बागीचे के एक ब्लॉक में जल्द फसल लेने के लिए इसरायल तकनीक से पौधों को तैयार कर रहे हैं। उन्होंने इस तकनीक के इस्तेमाल के लिए वर्ष 2008 में एक ब्लॉक चुना। उसमें एक बीघा भूमि पर 200 रूट स्टॉक पंक्तियों में लगाए। वर्ष 2010 में जब इन पौधों से शाखाएं निकलनी शुरू हुईं तो उन्हें रस्सियों से 45 डिग्री के कोण पर जमीन से बांध दिया। उन्होंने बताया कि खिंचाव पडऩे से पौधा त्रिशंकु आकार लेता है और शाखाओं में तेजी से बीमें फूटते हैं। चौहान बताते हैं कि उन्होंने इस तकनीक को इंटरनेट पर देखा और बागवानी विशेषज्ञों से सलाह करने के बाद इसे अपने बागीचे में आजमाया। इस विधि से वर्ष 2011 के सीजन में पहला सेंपल आया। सेंपल के फलों की गुणवत्ता, आकार और रंग बेहतरीन था। उनका कहना है कि वर्ष 2012 में इस ब्लॉक में यह तकनीक अपना पूरा असर दिखाएगी और प्रदेश के बागवान इस मार्डन ऑर्चर्ड में लगी फसल और इसकी गुणवत्ता देख पाएंगे। चौहान के अनुसार वे भविष्य में की जाने वाले नई प्लांटेशन में भी इस तकनीक का इस्तेमाल करेंगे।
इस समय उनके बागीचे में एमएम 111, एम 27 और एमएम 106 रूट स्टॉक पर सुपर चीफ, स्कारलेट स्पर-टू, आरेगन स्पर-टू, शैलेट स्पर, ऐस, रेड डिलीशियस जैसी मुख्य स्पर किस्में हैं। वहीं एम 09 पर परागण किस्मों में गेल गाला, पिंक लेडी, गलोस्टर, जिंजर गोल्ड, ग्रेनी स्मिथ और विंटर बनाना को भी लगाया गया है। चौहान के पास नाशपाती की केनाल रेड, पेखम थ्रम्पस, कश्मीरी नाख, कान्फ्रेस और कॉनकार्ड जैसी नई किस्में भी हैं।
री-प्लांटेशन के लिए फैदर प्लांट
लोअर बेल्ट के बागीचों में सेब की री-प्लांटेशन की सफलता काफी कम है। राजेन्द्र का बागीचा भी कम ऊंचाई पर है और वहां भी री-प्लांटेशन में दिक्कतें हैं। इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने विशेषज्ञों की सलाह पर पहले खेत में फैदर प्लांट तैयार किए और चार साल बाद सर्दियों में इन्हें पुराने बागीचों में मिट्टी सहित रोपित किया। इसके उन्हें अच्छे परिणाम मिले। इन पौधों में ग्रोथ और सक्सेस रेट काफी बढिय़ा रहा। जिस पौधे में शाखाएं आ जाती हैं उसे फैदर प्लांट कहा जाता है। री-प्लांटेशन में कारगर इस तकनीक के तहत पहले खेत में चार साल तक पौधा तैयार किया जाता है। सर्दियों में तापमान शून्य से नीचे चला जाने के बाद मिट्टी जम जाती है और ऐसे में फैदर प्लांट को आसपास की दो फुट मिट्टी सहित उखाड़ कर दूसरी जगह पर रोपित किया जाता है। चौहान ने अब तक करीब 100 फैदर प्लांट पुराने बागीचे में रोपित करने में कामयाबी हासिल की है।
ब्रिज ग्राफ्टिंग
प्रदेश में इस समय पुराने बागीचे बीमारियों की चपेट में हैं। जड़ें क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण बीमार पौधे भोजन नहीं बना पा रहेे हैं और तेजी से सूख रहे हैं। इस समस्या के निदान में ब्रिज ग्राफ्टिंग एक कारगर विधि है। राजेन्द्र चौहान ने वर्ष 2005 में उद्यान पंडित स्व. बीआर ताजटा के बागीचे में इस तकनीक को देखा और उनकी मदद से अपने बागीचे में इस पर काम शुरू कर दिया। चौहान का कहना है कि उस पेड़ को भी ब्रिज ग्राफ्टिंग से जिंदा रखा जा सकता है, जिसकी 50 प्रतिशत से अधिक जड़ें खराब हो गई हों। इस विधि में पुराने पौधे के तने के चारों ओर तीन-चार पाल्टियां लगाई जाती हैं। पाल्टियों के सिरों को बाद में पुराने पेड़ की छाल साथ ग्राफ्ट किया जाता है। इससे पाल्टियों के जरिए भोजन पेड़ तक जाता है और सूखने की कगार पर पहुंच चुके पौधों में नई जान आ जाती है।